मन
के समक्ष बार-बार उपर्युक्त विचार रखने चाहिए। शरीर को असत्, मल-मूत्र का
भण्डार तथा दुःखरूप जानकर देहाभिमान का त्याग करके सदैव आत्मनिश्चय करना
चाहिए। यह शरीर एक मकान से सदृश है, जो कुछ समय के लिए मिला है। जिसमें
ममता रखकर आप उसे अपना मकान समझ बैठे हैं, वह आपका नहीं है। शरीर तो
पंचतत्वों का बना हुआ है। आप तो स्वयं को शरीर मान बैठे हो, परंतु जब सत्य
का पता लगेगा तब कहोगे कि 'हाय ! मैं कितनी बड़ी भूल कर बैठा था कि शरीर को
'मैं' मानने लगा था।' जब आप ज्ञान में जागोगे तब समझ में आयेगा कि मैं
पंचतत्वों का बना यह घर नही हूँ, मैं तो इससे भिन्न सत्-चित्-आनन्दस्वरूप
हूँ। यह ज्ञान ही जिज्ञासु के लिए उत्तम खुराक है।
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