श्री
योगवाशिष्ठ' के उपशम प्रकरण के 72 वें सर्ग में वशिष्ठजी महाराज ने कहा
हैः "ज्ञानवान अभिमान से रहित चेष्टा करता है। वह देखता, हँसता, लेता, देता
है परंतु हृदय से सदा शीतल बुद्धि रहता है। सब कामों में वह अकर्ता है,
संसार की ओर से सो रहा है और आत्मा की ओर जागृत है। उसने हृदय से सबका
त्याग किया है, बाहर सब कार्यों को करता है और हृदय में किसी पदार्थ की
इच्छा नहीं करता। बाहर जैसा प्रकृत आचार प्राप्त होता है उसे अभिमान से
रहित होकर करता है, द्वेष किसी में नहीं करता और सुख-दुःख में पवन की नाई
होता है।
No comments:
Post a Comment