युद्ध में मनुष्य के साहस का जितना महत्त्व है, उतना शस्त्रों के ढेर का नहीं है। ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की आत्मशक्ति को पोषण मिलता है। व्यक्तियों का जीवन जब केवल काम-वासना के, सम्पत्ति जुटाने के या दोनों के चिंतन में व्यतीत होता है, तब ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त पर प्रहार होता है। जब ब्रह्मचर्य की उपेक्षा की जाती है, तब मनुष्य की आत्मशक्ति क्षीण होती है और उसकी सत्ता और सम्पत्ति शक्तिहीन बनती है।
कारण कुछ भी हो – चाहे अश्लील साहित्य हो, चलचित्र हों या और कुछ, जिम्मेदार कोई भी हो – कलाकार हो या इन सब कामों का नेता, प्रकृति तो अपना काम करती है। जब राष्ट्र के युवक युवतियाँ ब्रह्मचर्य को छोड़ देते हैं और अपने को काम वासना में खो देते हैं, शिक्षा को सम्पत्ति व काम-वासना के पीछे अपनी बुद्धिमत्ता और ओजस्विता को लुटा देते हैं, तब राष्ट्र अस्त्र-शस्त्रों से कितना भी सुसज्जित हो पर अपना प्रभाव कायम नहीं रख सकता। उसके सारे क्रियाकलाप भ्रांतिमात्र साबित होते हैं। मजबूत आधार के बिना बनाया हुआ किला बालू का किला साबित होता है।
यह समस्या सभी राष्ट्रों के सामने है। लोगों की आत्मशक्ति पुनरूज्जीवित करनी होगी। अन्यथा कितनी भी शस्त्र-सामग्री उधार ली जाय या कर्जा लेकर खड़े किये गये कारखानों के द्वारा तैयार की जाय, सब बेकार साबित होगी। मनुष्य के आत्मबल की जरूरत केवल धर्मयुद्ध में नहीं बल्कि सभी प्रकार के न्यायोचित शौर्य में भी है। सम्पत्ति और सत्ता की नहीं, ब्रह्मचर्य और उससे विकसित मनोबल की विजय होती है।
ब्रह्मचर्य को छोड़ना यानी मानव-सभ्यता से पशु जीवन की ओर मुड़ना। संयम के पालन से मस्तिष्क और हृदय शक्तिशाली बनते हैं। विषय-सेवन से बौद्धिक शक्ति और आत्मशक्ति नष्ट हो जाती।
केवल दैहिक भोग का संयम पर्याप्त नहीं है। जब मन में भोग का चिंतन चलता है, जब वासना की आग अंदर से जलाती है, तब चित्तशक्ति क्षीण होती जाती है। विषय-सेवन और वासना का त्याग यानी ब्रह्मचर्य।
Tuesday, February 1, 2011
विनम्रता
जो दूसरों की सेवा करता है, दूसरों के अनुकूल होता है, वह दूसरों का जितना हित करता है उसकी अपेक्षा उसका खुद का हित ज्यादा होता है।
अपने से जो उम्र से बड़े हों, ज्ञान में बड़े हो, तप में बड़े हों, उनका आदर करना चाहिए। जिस मनुष्य के साथ बात करते हो वह मनुष्य कौन है यह जानकर बात करो तो आप व्यवहार-कुशल कहलाओगे।
किसी को पत्र लिखते हो तो यदि अपने से बड़े हों तो 'श्री' संबोधन करके लिखो। संबोधन करने से सुवाक्यों की रचना से शिष्टता बढ़ती है। किसी से बात करो तो संबोधन करके बात करो। जो तुकारे से बात करता है वह अशिष्ट कहलाता है। शिष्टतापूर्वक बात करने से अपनी इज्जत बढ़ती है।
जिसके जीवन में व्यवहार-कुशलता है, वह सभी क्षेत्रों में सफल होता है। जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है। विनम्रता विद्या बढ़ाती है। जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता।
अपने से जो उम्र से बड़े हों, ज्ञान में बड़े हो, तप में बड़े हों, उनका आदर करना चाहिए। जिस मनुष्य के साथ बात करते हो वह मनुष्य कौन है यह जानकर बात करो तो आप व्यवहार-कुशल कहलाओगे।
किसी को पत्र लिखते हो तो यदि अपने से बड़े हों तो 'श्री' संबोधन करके लिखो। संबोधन करने से सुवाक्यों की रचना से शिष्टता बढ़ती है। किसी से बात करो तो संबोधन करके बात करो। जो तुकारे से बात करता है वह अशिष्ट कहलाता है। शिष्टतापूर्वक बात करने से अपनी इज्जत बढ़ती है।
जिसके जीवन में व्यवहार-कुशलता है, वह सभी क्षेत्रों में सफल होता है। जिसमें विनम्रता है, वही सब कुछ सीख सकता है। विनम्रता विद्या बढ़ाती है। जिसके जीवन में विनम्रता नहीं है, समझो उसके सब काम अधूरे रह गये और जो समझता है कि मैं सब कुछ जानता हूँ वह वास्तव में कुछ नहीं जानता।
इच्छा
अब करने-धरने के संकल्प सब छोड़ दो। यह ब्रह्माण्ड अपने बिना कुछ किये ही धमाधम चलता रहेगा। कितने ही मजदूर लोग बहुत कुछ कर रहे हैं बेचारे। अपने को कर्त्ता क्यों बना रहे हो ? आत्मानन्द से मुँह क्यों मोड़ रहे हो ?
'नहीं, मैं अपने को कर्त्ता मानकर नहीं कर रहा हूँ....'
अरे कर्त्ता नहीं मानते तो करने की इच्छा कैसे होती है ? ईमानदारी से खोजो। खोजकर पकड़ो कि क्या इच्छा है। उस इच्छा को यूँ किनारे लगा दो और तुम प्रकट हो जाओ। इच्छाओं के आवरण के पीछे कब तक मुँह छिपाये बैठे रहोगे ? यश की इच्छा है ? मारो धक्का। प्रसिद्धि की इच्छा है ? मार दो फूँक। अच्छा कहलाने की इच्छा है ? मारो लात। इतना कर लिया तो सब शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों का अभ्यास, जप-तप-तीर्थ-अनुष्ठान और सब सेवाएँ फलित हो गईं।
लेकिन सावधान ! आलस्य या अकर्मण्यता नहीं लानी है। इच्छारहित होने का अभ्यास करके आत्मदेव का साक्षात्कार करना है। फिर तुम्हारे द्वारा बहुत सारे कर्म होने लगेंगे लेकिन तुममें कर्तृत्व की बू न रहेगी।
'नहीं, मैं अपने को कर्त्ता मानकर नहीं कर रहा हूँ....'
अरे कर्त्ता नहीं मानते तो करने की इच्छा कैसे होती है ? ईमानदारी से खोजो। खोजकर पकड़ो कि क्या इच्छा है। उस इच्छा को यूँ किनारे लगा दो और तुम प्रकट हो जाओ। इच्छाओं के आवरण के पीछे कब तक मुँह छिपाये बैठे रहोगे ? यश की इच्छा है ? मारो धक्का। प्रसिद्धि की इच्छा है ? मार दो फूँक। अच्छा कहलाने की इच्छा है ? मारो लात। इतना कर लिया तो सब शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों का अभ्यास, जप-तप-तीर्थ-अनुष्ठान और सब सेवाएँ फलित हो गईं।
लेकिन सावधान ! आलस्य या अकर्मण्यता नहीं लानी है। इच्छारहित होने का अभ्यास करके आत्मदेव का साक्षात्कार करना है। फिर तुम्हारे द्वारा बहुत सारे कर्म होने लगेंगे लेकिन तुममें कर्तृत्व की बू न रहेगी।
Sunday, September 5, 2010
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