अब करने-धरने के संकल्प सब छोड़ दो। यह ब्रह्माण्ड अपने बिना कुछ किये ही धमाधम चलता रहेगा। कितने ही मजदूर लोग बहुत कुछ कर रहे हैं बेचारे। अपने को कर्त्ता क्यों बना रहे हो ? आत्मानन्द से मुँह क्यों मोड़ रहे हो ?
'नहीं, मैं अपने को कर्त्ता मानकर नहीं कर रहा हूँ....'
अरे कर्त्ता नहीं मानते तो करने की इच्छा कैसे होती है ? ईमानदारी से खोजो। खोजकर पकड़ो कि क्या इच्छा है। उस इच्छा को यूँ किनारे लगा दो और तुम प्रकट हो जाओ। इच्छाओं के आवरण के पीछे कब तक मुँह छिपाये बैठे रहोगे ? यश की इच्छा है ? मारो धक्का। प्रसिद्धि की इच्छा है ? मार दो फूँक। अच्छा कहलाने की इच्छा है ? मारो लात। इतना कर लिया तो सब शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों का अभ्यास, जप-तप-तीर्थ-अनुष्ठान और सब सेवाएँ फलित हो गईं।
लेकिन सावधान ! आलस्य या अकर्मण्यता नहीं लानी है। इच्छारहित होने का अभ्यास करके आत्मदेव का साक्षात्कार करना है। फिर तुम्हारे द्वारा बहुत सारे कर्म होने लगेंगे लेकिन तुममें कर्तृत्व की बू न रहेगी।
Tuesday, February 1, 2011
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