Monday, August 27, 2012

संत और गुरु में क्या अंतर होता है ?

संतों में भी स्तर होते हैं , गुरुपद के संत (७० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर) से शक्ति के स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं, सद्गुरु पद के संत (80% आध्यात्मिक स्तर) उसके अगले स्तर के होते हैं और उनसे आनंद के स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं और वह वह शक्ति के स्पंदन से अधिक सूक्ष्म होते हैं और सबसे ऊपर परात्पर पद के संत (९० % आध्यात्मिक स्तर) के होते हैं उनसे शांति के स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं |

सभी गुरु संत होते हैं, परन्तु सभी संत गुरु नहीं होते | गुरु पद एक कठिन पद होता है और कई बार संत इस पद को स्वीकार करने को इच्छुक नहीं होते और वे आत्मानंद में रत रहना पसंद करते हैं | ऐसे संतो के मात्र अस्तित्व से ब्रह्माण्ड की सात्त्विकता बनी रहती है | कुछ संत भक्तों के अध्यात्मिक कष्ट दूर तो करते हैं, पर किसी को शिष्य स्वीकार कर उसे मोक्ष तक ले जाने को इच्छुक नहीं होते क्योंकि संतों को पता होता है मात्र शिष्य बनाने से काम समाप्त नहीं होता, शिष्य जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं होता, तब तक वह उत्तरदायित्व गुरु का होता है; अतः कई गुरु शिष्य बनाते समय बहुत सतर्क रहते हैं और योग्य पात्र को ही शिष्य स्वीकार करते हैं | मात्र गुरु पद स्वीकार करने के पश्चात् संतो की प्रगति मोक्ष की द्रुत गति से होती है | ईश्वर प्रत्येक संत को गुरुके लिए नहीं चुनते, जिनमे दूसरों को सिखाने की विशेष क्षमता हो, मां समान मातृत्व, क्षमाशीलता और प्रेम हो, उसे ही सद्गुरु पद पर आसीन करते हैं |........

वास्तु शुद्धिके सरल उपाय :

१. घरमें तुलसीके पौधे लगायें |
२. घर एवं आसपासके परिसरको स्वच्छ रखें |
३. घरमें नियमित गौ मूत्रका छिड़काव करें |
४. घरके अंदर सप्ताहमें दो दिन कच्चे नीम पत्तीकी धूनी जलाएं |
५. घरमें कंडेको प्रज्ज्वलित कर धुना एवं लोबानसे धूप दिखाएँ |
६. घरके चारों दीवारपर वास्तु शुद्धिकी सात्त्विक नामजपकी पट्टियाँ लगाएँ |
७. संतोंके भजन, स्त्रोत्र पठन या सात्त्विक नामजपकी ध्वनि चक्रिका (C.D) चलायें |
८. घरमें मृत पितरके चित्र अपनी दृष्टिके सामने न रखें |
९. घरमें कलह-क्लेश टालें, वास्तु देवता “तथास्तु” कहते रहते हैं अतः क्लेशसे कष्ट और बढ़ता है एवं धनका नाश होता है |
१० घरमें सत्संग प्रवचनका आयोजन करें | अतिरिक्त स्थान घरमें हो, तो धर्म-कार्य हेतु या साप्ताहिक सत्संग हेतु, उस स्थानको किसी संत या गुरुके कार्य हेतु अर्पण करें |
११. संतोंके चरण घरमें पड़नेसे, घरकी वास्तु १०% तक शुद्ध हो जाती है अतः संतोके आगमन हेतु अपनी अपनी भक्ति बढ़ाएं |
१२. प्रसन्न एवं संतुष्ट रहें, घरके सदस्योंके मात्र प्रसन्नचित्त रहनेसे घरकी ३०% तक वास्तुकी शुद्धि हो जाती है |
१३॰ घरमें अधिकसे अधिक समय, सभी कार्य करते हुए नामजप करें |
१४. सुबह और संध्या समय घरके सभी सदस्य मिलकर पूजा स्थलपर आरती करें |
१५. घर के पर्दे, दीवार, चादर इत्यादिके रंग काले, बैंगनी या गहरे रंगके न हों यह ध्यान रखें |

जब हम संतों की वाणी को श्रद्धापूर्वक पढ़ते हैं उससे हमारी कारण देह (बुद्धि ) की शुद्धि होती है और वह सात्त्विक बनती है और जब हम संतों के चित्र देखते हैं तो उससे हमारी वासना देह ( वासनाओं ) इस शुद्धि होती है | अपने मन एवं इंद्रियों को जीत चुके आत्मज्ञानी संतों में इतनी शक्ति होती है

When we read the writings of saints with bhav (spiritual emotion , it cleanses our karan deh (intellect) and makes it sattvik and when we look at the the photo of a saint it cleanses the vasana deh (the the desire body ) Such is the power of a self realised saints who have control over his five senses and mind !

प्रश्न – ईश्वर को कैसे पाया जाय ?
उत्तर – हरेक साधक की अपनी अपनी क्षमता होती है सबकी अपनी-अपनी योग्यता होती है| उसके कुल का सम्प्रदाय का जो भी मंत्र इत्यादि हो उसका जप-तप करता रहे ठीक है | साथ ही साथ किसी ज्ञानवान महापुरुष का सत्संग सुनता रहे | बुद्ध पुरुष के सत्संग के द्वारा साधक का अधिकार बढ़ता जाएगा | साधक की योग्यता देखकर यदि ज्ञानवान मार्ग बताएं तो उस मार्ग परा चलने से साधक जल्दी अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है |
प्रथम भक्ति संतन कर संगा |
दूसर रती मम कथा प्रसंगा ||

श्री योगवाशिष्ठ' के उपशम प्रकरण के 72 वें सर्ग में वशिष्ठजी महाराज ने कहा हैः "ज्ञानवान अभिमान से रहित चेष्टा करता है। वह देखता, हँसता, लेता, देता है परंतु हृदय से सदा शीतल बुद्धि रहता है। सब कामों में वह अकर्ता है, संसार की ओर से सो रहा है और आत्मा की ओर जागृत है। उसने हृदय से सबका त्याग किया है, बाहर सब कार्यों को करता है और हृदय में किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करता। बाहर जैसा प्रकृत आचार प्राप्त होता है उसे अभिमान से रहित होकर करता है, द्वेष किसी में नहीं करता और सुख-दुःख में पवन की नाई होता है।

श्री योगवाशिष्ठ' के उपशम प्रकरण के 72 वें सर्ग में वशिष्ठजी महाराज ने कहा हैः "ज्ञानवान अभिमान से रहित चेष्टा करता है। वह देखता, हँसता, लेता, देता है परंतु हृदय से सदा शीतल बुद्धि रहता है। सब कामों में वह अकर्ता है, संसार की ओर से सो रहा है और आत्मा की ओर जागृत है। उसने हृदय से सबका त्याग किया है, बाहर सब कार्यों को करता है और हृदय में किसी पदार्थ की इच्छा नहीं करता। बाहर जैसा प्रकृत आचार प्राप्त होता है उसे अभिमान से रहित होकर करता है, द्वेष किसी में नहीं करता और सुख-दुःख में पवन की नाई होता है।

संसार में कोई भी किसी का वैरी नहीं है। मन ही मनुष्य का वैरी और मित्र है। मन को जीतोगे तो वह तुम्हारा मित्र बनेगा। मन वश में हुआ तो इन्द्रियाँ भी वश में होंगी।
श्रीगौड़पादाचार्यजी ने कहा हैः 'समस्त योगी पुरूषों के भवबंधन का नाश, मन की वासनाओं का नाश करने से ही होता है। इस प्रकार दुःख की निवृत्ति तथा ज्ञान और अक्षय शांति की प्राप्ति भी मन को वश करने में ही है।'
मन को वश करने के कई उपाय हैं। जैसे, भगवन्नाम का जप, सत्पुरूषों का सत्संग, प्राणायाम आदि।

माया रची तू आप ही है, आप ही तू फँस गया।
कैसा महा आश्चर्य है ? तू भूल अपने को गया॥
संसार-सागर डूब कर, गोते पड़ा है खा रहा।
अज्ञान से भव सिन्धु में, बहता चला है जा रहा ॥७॥

जैसी प्रीति संसार के पदार्थों में है, वैसी अगर आत्मज्ञान, आत्मध्यान, आत्मानंद में करें तो बेड़ा पार हो जाय। जगत के पदार्थों एवं वासना, काम, क्रोध आदि से प्रीति हटाकर आत्मा में लगायें तो तत्काल मोक्ष हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है।

अपनी शक्ल को देखने के लिए तीन वस्तुओं की आवश्यकता होती है – एक निर्मल दर्पण, दूसरी आँख और तीसरा प्रकाश। इसी प्रकार शम, दम, तितिक्षा, ध्यान तथा सदगुरू के अद्वैत ज्ञान के उपदेश द्वारा अपने आत्मस्वरूप का दर्शन हो जाता है।

ये मोहब्बत की बाते है औधव
बंदगी अपने बस की नहीं है ll
यहाँ सर देकर होते है सौदे
आशकी इतनी सस्ती नहीं है ll

मन के समक्ष बार-बार उपर्युक्त विचार रखने चाहिए। शरीर को असत्, मल-मूत्र का भण्डार तथा दुःखरूप जानकर देहाभिमान का त्याग करके सदैव आत्मनिश्चय करना चाहिए। यह शरीर एक मकान से सदृश है, जो कुछ समय के लिए मिला है। जिसमें ममता रखकर आप उसे अपना मकान समझ बैठे हैं, वह आपका नहीं है। शरीर तो पंचतत्वों का बना हुआ है। आप तो स्वयं को शरीर मान बैठे हो, परंतु जब सत्य का पता लगेगा तब कहोगे कि 'हाय ! मैं कितनी बड़ी भूल कर बैठा था कि शरीर को 'मैं' मानने लगा था।' जब आप ज्ञान में जागोगे तब समझ में आयेगा कि मैं पंचतत्वों का बना यह घर नही हूँ, मैं तो इससे भिन्न सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हूँ। यह ज्ञान ही जिज्ञासु के लिए उत्तम खुराक है।

काहे एक बिना चित्त लाइये ?
ऊठत बैठत सोवत जागत, सदा सदा हरि ध्याइये।

हे भाई ! एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी से क्यों चित्त लगाता है ? उठते-बैठते, सोते-जागते तुझे सदैव उसी का ध्यान करना चाहिए।
यह शरीर सुन्दर नहीं है। यदि ऐसा होता तो प्राण निकल जाने के बाद भी यह सुन्दर लगता। हाड़-मांस, मल-मूत्र से भरे इस शरीर को अंत में वहाँ छोड़कर आयेंगे जहाँ कौए बीट छोड़ते हैं।

Tuesday, April 17, 2012

दीनता-हीनता पाप है। तुम तो मौत से भी निर्भयतापूर्वक कहोः ‘ऐ मौत ! मेरे शरीर को छीन सकती है, पर मेरा कुछ नहीं कर सकती। तू क्या डरायेगी मुझे? ऐ दुनिया की रंगीनियाँ ! संसार के प्रलोभनो ! तुम मुझे क्या फँसाओगे? तुम्हारी पोल मैंने जान ली है। ऐ दुनिया के रीत-रिवाजो ! सुख-दुःखो ! अब तुम मुझे क्या नचाओगे? अब लाख-लाख काँटों पर भी मैं निर्भयतापूर्वक कदम रखूँगा। हजार-हजार उत्थान और पतन में भी मैं ज्ञान की आँख से देखूँगा। मुझ आत्मा को कैसा भय? मेरा कुछ न बिगड़ा है न बिगड़ेगा।
जितना हो सके, जीवित सदगुरु के सान्निध्य का लाभ लो। वे तुम्हारे अहंकार को काट-छाँटकर तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष करेंगे। उनकी वर्त्तमान हयाती के समय ही उनसे पूरा-पूरा लाभ लेने का प्रयास करो। उनका शरीर छूटने के बाद तो..... ठीक है, मंदिर बनते हैं और दुकानदारियाँ चलती हैं। तुम्हारी गढ़ाई फिर नहीं हो पायेगी। अभी तो वे तुम्हारी – ‘स्वयं को शरीर मानना और दूसरों को भी शरीर मानना’- ऐसी परिच्छिन्न मान्यताओं को छुड़ाते हैं। बाद में कौन छुड़ायेगा?..... बाद में नाम तो होगा साधना का कि मैं साधना करता हूँ, परन्तु मन खेल करेगा, तुम्हें उलझा देगा, जैसे सदियों से उलझाता आया है।

मिट्टी को कुम्हार शत्रु लगता है। पत्थर को शिल्पी शत्रु लगता है क्योंकि वे मिट्टी और पत्थर को चोट पहुँचाते हैं। ऐसे ही गुरु भी चाहे तुम्हें शत्रु जैसे लगें, क्योंकि वे तुम्हारे देहाध्यास पर चोट करते हैं, परन्तु शत्रु होते नहीं। शत्रु जैसे लगें तो भी तुम भूलकर भी उनका दामन मत छोड़ना। तुम धैर्यपूर्वक लगे रहना अपनी साधना में। वे तुम्हें कंचन की तरह तपा-तपाकर अपने स्वरूप में जगा देंगे। तुम्हारा देहाध्यासरूपी मैल धोकर स्वच्छ ब्रह्मपद में तुम्हें स्थिर कर देंगे। वे तुमसे कुछ भी लेते हुए दिखें परन्तु कुछ भी नहीं लेंगे, क्योंकि वे तो सब छोड़कर सदगुरु बने हैं। वे लेंगे तो तुम्हारी परिच्छिन्न मान्यताएँ लेंगे, जो तुम्हें दीन बनाये हुए हैं।

सदगुरु मिटाते हैं। तू आनाकानी मत कर, अन्यथा तेरा परमार्थ का मार्ग लम्बा हो जायेगा। तू सहयोग कर। तू उनके चरणों में मिट जा और मालिक बन, सिर दे और सिरताज बन; अपना 'मैं' पना मिटा और मुर्शिद बन। तू अपना तुच्छ 'मैं' उनको दे दे और उनके सर्वस्व का मालिक बन जा। अपने नश्वर को ठोकर मार और उनसे शाश्वत का स्वर सुन। अपने तुच्छ जीवत्व को त्याग दे और शिवत्व में विश्राम कर।
ईश्वरीय विधान है कि सबमें एक ही चैतन्य है और एक ही में सब है। औरों के स्वरूप में दिखने वाले लोग आपके ही स्वरूप हैं। उनके साथ आत्मीयता से व्यवहार करते हैं तो आपकी उन्नति होती है। शोषण की बुद्धि से व्यवहार करते हैं तो आपकी अवनति होती है। दिखने में भले ही धन, सत्ता, वैभव पाकर आप उन्नत दिखें, सचमुच में भीतर की शांति, निर्भयता, आनन्द, सहजता आदि दैवी गुण क्षीण होने लगेंगे। देर-सबेर ईश्वरीय विधान आपको शोषण, कपट आदि दोषों से दूर करने के लिए सजा देकर शुद्ध करेगा। अतः ईश्वरीय विधान की सजा मिलने से पहले ही सजग हो जाओ।

जगत से प्रीति हटाकर आत्मा में लगायें....


जैसी प्रीति संसार के पदार्थों में है, वैसी अगर आत्मज्ञान, आत्मध्यान, आत्मानंद में करें तो बेड़ा पार हो जाय। जगत के पदार्थों एवं वासना, काम, क्रोध आदि से प्रीति हटाकर आत्मा में लगायें तो तत्काल मोक्ष हो जाना आश्चर्य की बात नहीं है।
काहे एक बिना चित्त लाइये ?
ऊठत बैठत सोवत जागत, सदा सदा हरि ध्याइये।
हे भाई ! एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी से क्यों चित्त लगाता है ? उठते-बैठते, सोते-जागते तुझे सदैव उसी का ध्यान करना चाहिए।
यह शरीर सुन्दर नहीं है। यदि ऐसा होता तो प्राण निकल जाने के बाद भी यह सुन्दर लगता। हाड़-मांस, मल-मूत्र से भरे इस शरीर को अंत में वहाँ छोड़कर आयेंगे जहाँ कौए बीट छोड़ते हैं।
मन के समक्ष बार-बार उपर्युक्त विचार रखने चाहिए। शरीर को असत्, मल-मूत्र का भण्डार तथा दुःखरूप जानकर देहाभिमान का त्याग करके सदैव आत्मनिश्चय करना चाहिए। यह शरीर एक मकान से सदृश है, जो कुछ समय के लिए मिला है। जिसमें ममता रखकर आप उसे अपना मकान समझ बैठे हैं, वह आपका नहीं है। शरीर तो पंचतत्वों का बना हुआ है। आप तो स्वयं को शरीर मान बैठे हो, परंतु जब सत्य का पता लगेगा तब कहोगे कि 'हाय ! मैं कितनी बड़ी भूल कर बैठा था कि शरीर को 'मैं' मानने लगा था।' जब आप ज्ञान में जागोगे तब समझ में आयेगा कि मैं पंचतत्वों का बना यह घर नही हूँ, मैं तो इससे भिन्न सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हूँ। यह ज्ञान ही जिज्ञासु के लिए उत्तम खुराक है।
संसार में कोई भी किसी का वैरी नहीं है। मन ही मनुष्य का वैरी और मित्र है। मन को जीतोगे तो वह तुम्हारा मित्र बनेगा। मन वश में हुआ तो इन्द्रियाँ भी वश में होंगी।
श्रीगौड़पादाचार्यजी ने कहा हैः 'समस्त योगी पुरूषों के भवबंधन का नाश, मन की वासनाओं का नाश करने से ही होता है। इस प्रकार दुःख की निवृत्ति तथा ज्ञान और अक्षय शांति की प्राप्ति भी मन को वश करने में ही है।'
मन को वश करने के कई उपाय हैं। जैसे, भगवन्नाम का जप, सत्पुरूषों का सत्संग, प्राणायाम आदि।
इनमें अच्छा उपाय है भगवन्नाम जपना। भगवान को अपने हृदय में विराजमान किया जाय तथा गर्भ का दुःख, जन्म का दुःख, बीमारियों का दुःख, मृत्यु का दुःख एवं चौरासी लाख योनियों का दुःख, मन को याद दिलाया जाय। मन से ऐसा भी कहा जाय कि 'आत्मा के कारण तू अजर, अमर है।' ऐसे दैनिक अभ्यास से मन अपनी बदमाशियाँ छोड़कर तुम्हारा हितैषी बनेगा। जब मन भगवन्नाम का उच्चारण 200 बार माला फेरकर करने के बजाय 100 माला फेरकर बीच में ही जप छोड़ दे तो समझो कि अब मन चंचल हुआ है और यदि 200 बार माला फेरे तो समझो कि अब मन स्थिर हुआ है।
जो सच्चा जिज्ञासु है, वह मोक्ष को अवश्य प्राप्त करता है। लगातार अभ्यास चिंतन तथा ध्यान करने से साधक आत्मनिश्चय में टिक जाता है। अतः लगातार अभ्यास, चिंतन, ध्यान करते रहना चाहिए, फिर निश्चय ही सब दुःखों से मुक्ति और परमानंद की प्राप्ति हो जायेगी। मोक्ष प्राप्त हो जायेगा।
अपनी शक्ल को देखने के लिए तीन वस्तुओं की आवश्यकता होती है – एक निर्मल दर्पण, दूसरी आँख और तीसरा प्रकाश। इसी प्रकार शम, दम, तितिक्षा, ध्यान तथा सदगुरू के अद्वैत ज्ञान के उपदेश द्वारा अपने आत्मस्वरूप का दर्शन हो जाता है।
शरीर को मैं कहकर बड़े-बड़े महाराजे भी भिखारियों की नाँई संसार से चले गये, परंतु जिसने अपने आत्मा के मैं को धारण कर लिया वह सारे ब्रह्माण्डों का सम्राट बन गया। उसने अक्षय राज्य, निष्कंटक राज्य पा लिया।
हम परमानंदस्वरूप परब्रह्म हैं। सबमें हमारा ही रूप है। जो आनंद संसार में भासता है, वह वास्तव में आत्मा के आनंद की ही एक झलकमात्र होती है। तुम्हारे भीतर का आनंद ही अज्ञान से बाहर के विषयों में प्रतीत होता है।
हम आनंदरूप पहले भी थे, अभी भी हैं और बाद में भी रहेंगे। यह जगत न पहले था, न बाद में रहेगा, किंतु बीच में जो दिखता है वह भी अज्ञानमात्र है। आरम्भ में केवल आनंदतत्व था, वैसे ही अभी भी ब्रह्म का ही अस्तित्व है।
जैसे सोना जब खान के अन्दर था तब भी सोना था, अब उसमें से आभूषण बने तो भी वह सोना ही है और जब आभूषण नष्ट हो जायेंगे तब भी वह सोना ही रहेगा, वैसे ही केवल आनंदस्वरूप परब्रह्म ही सत्य है।
चाहे शरीर रहे अथवा न रहे, जगत रहे अथवा न रहे, परंतु आत्मतत्त्व तो सदा एक-का-एक, ज्यों का त्यों है।

Sunday, April 15, 2012

दीक्षा तीन प्रकार की होती है। एक होती है मांत्रिक दीक्षा, दूसरी होती है शांभवी दीक्षा और तीसरी होती है स्पर्श दीक्षा। ब्रह्मवेत्ता गुरुदेव अपने परमात्म-भाव में बैठकर शिष्य को वैदिक मंत्र देते हैं। शिष्य जिसे केन्द्र में रहता है उस केन्द्र में जाने की कला जानने वाले गुरुदेव वहाँ बैठकर जब गुरुमंत्र देते हैं तो शिष्य के स्वभाव में रूपान्तर होता है। दीक्षा से शिष्य को कुछ न कुछ अनुभव हो जाना चाहिए। उसी समय नहीं तो दो चार दिन के बाद कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए। पानी पिया तो प्यास बुझेगी ही, भोजन खाया जो भूख मिटेगी ही सूरज निकला तो अन्धकार मिटेगा ही। ऐसे ही मंत्र मिला तो पाप मिटने का अनुभव होगा। हृदय में रस का अनुभव होगा।
श्री दादा गुरुवाणी - १५ अप्रैल २०१२

सत् वस्तु सब कुछ

संत महात्माओं की सच्चे मन से सेवा करना, अन्तःकरण में कोई स्वार्थ नहीं रखना और उनसे कुछ भी नहीं लेना चाहिए| यदि वह प्रसन्न होकर आप से कहें कि कुछ मांगो तो तुम मांगो कि मुझे सच्चा प्रेम अवं विश्वास दीजिये, जैसे न में आपको भुलाउं और ना आप मुझ भुलाएं, अपने साथ मिलाएं| किसी में स्वार्थ रखोगे तो दुःखी होगें, अत्यन्त दुःखी बनोगे| स्वार्थ एक अपने ज्योति स्वरुप से, आत्मा से रखो और उससे प्रेम से मिलकर एक हो जाओ|

*** पहली आत्म कृपा अर्थात् अपने आप पर कृपा करना| जहां दृढ़ संकल्प है, वहां अवश्य सफलता मिलती है|
अग्नि से अंगार दूर हो जाता है तो वह काला कोयला बन जाता है। पर वही कोयला जब पुनः अग्नि से मिल जाता है तो वह अग्निरूप बन जाता है और अंगार होकर चमक उठता है।

ऐसे ही यह जीव भगवान से विमुख हो जाता है तो वह बार-बार जन्मता-मरता और दुःख पाता रहता है। पर जब वह भगवान के सम्मुख हो जाता है, अनन्य भाव से भगवान की शरण में हो जाता है तो वह भगवत्स्वरूप बन जाता है और चमक उठता है।

इतना ही नहीं, विश्व का भी कल्याण ...करने वाला हो जाता है।

प्रेम-पतिया तब लिखूं जब पिया हो परदेश |
तन में, मन में, जन में, तो काहे सन्देश ||...... पूज्यपाद श्रीबापूजी
जीव मात्र का हित केवल इसी बात में है कि वह किसी और का सहारा न लेकर केवल भगवान की ही शरण ले ले। भगवान के शरण होने के सिवाय जीव का कहीं भी, किंचित मात्र भी नहीं है।

कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्मा का अंश है। इससे वह परमात्मा को छोड़कर और किसी का सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं।

जब संसार की कोई भी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदि स्थिर नहीं है तो फिर इनका सहारा कैसे स्थिर रह सकता है ? इनका सहारा तो रहेगा नहीं, केवल चिन्ता, शोक, दुःख आदि रह जायेंगे।............. पूज्यपाद श्रीबापूजी

Thursday, April 5, 2012

वाणी के मौन से शक्ति का संचार होता है..

मन के मौन से शांति की अभिवृध्दी होती है….

बुध्दी के मौन से परमात्म प्रागट्य होता है…शिवोहम शिवोहम ..चिदानंद रूपम..



अहिंसक मनोवृत्ति, इंद्रिय संयम वाली नज़रिया, जीव पर दया, क्षमा का सदगुण , मन का संयम, ज्ञान और ध्यान में रूचि सत्य में प्रीति करने में सक्षम है…
जो कुछ तू देखता है वह सब तू ही है। कोई शक्ति इसमें बाधा नहीं डाल सकती। राजा, देव, दानव, कोई भी तुम्हारे विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते।

तुम्हारी शंकाएँ और भय ही तुम्हारे जीवन को नष्ट करते हैं। जितना भय और शंका को हृदय में स्थान दोगे, उतने ही उन्नति से दूर पड़े रहोगे।

Tuesday, April 3, 2012

यदि तुमने शरीर के साथ अहंबुद्धि की तो तुममें भय व्याप्त हो ही जायेगा, क्योंकि शरीर की मृत्यु निश्चित है। उसका परिवर्तन अवश्यंभावी है। उसको तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं रोक सकते। परन्तु यदि तुमने अपने आत्मस्वरूप को जान लिया, स्वरूप में तुम्हारी निष्ठा हो गयी तो तुम निर्भय हो गये, क्योंकि स्वरूप की मृत्यु कभी होती नहीं। मौत भी उससे डरती है।
परमात्मा का प्यारा

जिस मनुष्य को परमात्मा सदैव याद है और जिसका उस प्यारे से प्रेम है, वह कदापि उसके नियम को तोड़ नहीं सकता, अपितु उसके नियम अनुसार व्यव्हार करके शरीर, मन और आत्मा की उन्नति करता है|

वह सर्वदा सत्य पर स्थित रहता है| बुरे संग से दूर भागकर, श्रेष्ठ का संग करता है| ख़राब विचारों को अन्तःकरण से निकाल कर, सच्चाई धारण करता है| शरीर की उन्नति के लिए स्वास्थ्य के नियमों से परिचित होकर, उसके अनुसार चलता है|

*** धन का गर्व, कुटुंब का गर्व, इनका तुम जो गर्व कर रहे हो, वे तुम्हें तुम्हारे होते हुए छोड़ जाएँगे अथवा तुम उन्हें छोड़ जाओगे|
मुझ को जमीन आसमान मिल गई,
साईं क्या मिले सब कुछ मिल गए ।
मुझ को जमीन आसमान मिल गई,
साईं क्या मिले हर ख़ुशी मिल गई ॥

कैसा बेअरुखा था जीवन कैसी बेबसी,
रूठ गई थी मुझसे कब की हर ख़ुशी ।
मेहर हो गए मेहरबान मिल गए,
साईं क्या मिले सब कुछ मिल गए ॥

हर जनम में ध्यान अधुरा छोड़ आई है,
पन्ने जैसे जान के हम मोड़ आई हैं ।
साईं में ही गीता कुरान मिल गए,
साईं क्या मिले सब कुछ मिल गए ॥

Thursday, March 29, 2012

विकारों से बचने हेतु संकल्प-साधना

विषय विकार साँप के विष से भी अधिक भयानक हैं। इन्हें छोटा नहीं समझना चाहिए। सौ मन दूध में विष की एक बूँद डालोगे तो परिणाम क्या मिलेगा ? पूरा सौ मन व्यर्थ हो जाएगा।
साँप तो काटेगा, तभी विष चढ़ पायेगा किंतु विषय विकार का केवल चिंतन हो मन को भ्रष्ट कर देता है। अशुद्ध वचन सुनने से मन मलिन हो जाता है।
अतः किसी भी विकार को कम मत समझो। विकारों से सदैव सौ कौस दूर रहो। भ्रमर में कितनी शक्ति होती है कि वह लकड़ी को भी छेद देता है, परंतु बेचारा फूल की सुगंध पर मोहित होकर, पराधीन होकर अपने को नष्ट कर देता है। हाथी स्पर्श के वशीभूत होकर स्वयं को गड्ढे में डाल देता है। मछली स्वाद के कारण काँटे में फँस जाती है। पतंगा रूप के वशीभूत होकर अपने को दीये पर जला देता है। इन सबमें सिर्फ एक-एक विषय का आकर्षण होता है फिर भी ऐसी दुर्गति को प्राप्त होते हैं, जबकि मनुष्य के पास तो पाँच इन्द्रियों के दोष हैं। यदि वह सावधान नहीं रहेगा तो तुम अनुमान लगा सकते हो कि उसका क्या हाल होगा ?
अतः भैया मेरे ! सावधान रहें। जिस-जिस इन्द्रिय का आकर्षण है उस-उस आकर्षण से बचने का संकल्प करें। गहरा श्वास लें और प्रणव (ओंकार) का जप करें। मानसिक बल बढ़ाते जायें। जितनी बार हो सके, बलपूर्वक उच्चारण करें। फिर उतनी ही देर मौन रहकर जप करें। आज उस विकार में फिर से नहीं फँसूँगा या एक सप्ताह तक अथवा एक माह तक नहीं फँसूँगा... ऐसा संकल्प करें। फिर से गहरा श्वास लें। 'हरि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ.... हरि ॐॐॐॐॐ.
मन मछली की तरह भटकने वाला है। विवेक रूपी ज्ञान से भक्ति स्वयं प्राप्त हो जाएगी । भक्ति भजन श्रेष्ठ होगा तो भगवान दरवाजा खटखटाने आएंगे। संसार का चिंतन करने के बजाए भगवान के नाम का जाप करो। मन पवित्र रहेगा, क्योंकि मन बिगड़ गया तो सुधरना मुश्किल है।

ऐ गाफिल ! न समझा था , मिला था तन रतन तुझको ।
मिलाया खाक में तुने, ऐ सजन ! क्या कहूँ तुझको ?
अपनी वजूदी हस्ती में तू इतना भूल मस्ताना …
अपनी अहंता की मस्ती में तू इतना भूल मस्ताना …
करना था किया वो न, लगी उल्टी लगन तुझको ॥
ऐ गाफिल ……।
जिन्होंके प्यार में हरदम मुस्तके दीवाना था…
जिन्होंके संग और साथ में भैया ! तू सदा विमोहित था…
आखिर वे ही जलाते हैं करेंगे या दफन तुझको ॥
ऐ गाफिल …॥
शाही और गदाही क्या ? कफन किस्मत में आखिर ।
मिले या ना खबर पुख्ता ऐ कफन और वतन तुझको ॥
ऐ गाफिल ……।

Wednesday, March 28, 2012

अमुक क्या कहता है क्या नहीं, इस पर यदि ध्यान दिया करें तो कुछ काम नहीं कर सकते।बाहरी बातों के बारे में सोचकर अपनी मानसिक शांति भंग न करो।अपनी वास्तविकता को समझ लेने वाला पुरुष आनन्द के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं। किसी भी बात और किसी भी घटना से वह नहीं डरता। यह जान लेने वाला पुरुष पाप पुण्यों को छोड़कर सदा आत्मा को याद करने लगता है और किये हुए कर्म को भी आत्मरूप ही जान लेता है।

Thursday, March 22, 2012

वैराग्य

वैराग्य का अर्थ है कि दुनिया के किसी भी पदार्थ में मन अथवा प्रीति न हो और न वासना ही रहे| ऐसा नहीं कि हाथ में कमण्डल उठाएं, जटाएं रखवाएं, चोगा पहनें तो उसे वैराग्यवान कहा जाएगा| अन्तःकरण में यदि वासनाएं रही होंगी तो उसे वैराग्य नहीं कहा जाएगा|
...
जिसका अज्ञान, कर्म और वासनाएं नाश हो जाती हैं, वह विदेह मुक्त हो जाता है| उसका फिर जन्म नहीं होता|

*** तुम अच्छा संग करोगे और सुन्दर पुस्तक पढ़ोगे तो तुम्हारे चरित्र सुधरेंगे और इस प्रकार तुम्हारा जीवन भी उच्च बनेगा|
कोई कामी हो तो उसको भी भगवान मिल सकते है, कोई लोभी हो तो उसको भी भगवान मिल सकते है, कोई मोही हो तो उसके भी भगवान मिल सकते है, लेकिन जो दूसरों को धोखा देता है उसको भगवान नहीं मिल सकते है,
भगवान राम कहते है “ निर्मल मन जन मोही भाता... “

Wednesday, March 21, 2012

मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।

हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।

आत्मसाक्षात्कार करना बड़ा आसान है । कैसे ? अपनी जो भेददर्शन करनेवाली बुध्दि है, उसे अभेद-दर्शन में बदल दो बस । जिन कारणों से भेद दिखते हैं उन्हें मिटा दो तो साक्षात्कार हो जायेगा । सर्वत्र एक परब्रह्म परमात्मा है, उसके अलावा अन्य कुछ भी नहीं है । इस बात को दृढ़ता से मानकर चरितार्थ करने में लगे रहो ।
गृहस्थ में सुखी रहने की कला - जिन बातों को याद करने से तुम्हें चिंता होती है, दुःख होता है या किसीके दोष दिखते हैं, उन्हें विष की नाईं त्याग दो । जिन बातों से तुम्हारा उत्साह, आत्मिक बल बढ़ता है, प्रसन्नता बढ़ती है उनका आदर से चिंतन करो । अपने चित्त को ऐसा झंझटमुक्त रखो कि किसीकी निंदा, द्वेष, नफरत उसको बिगाड़ न सके । किसीने आपको गाली दी और वह गाली देकर आपको दुःखी करना चाहता है तब यदि आप दुःखी हो गये तो उसका तो काम बन गया । आप तो हृदय को झंझटमुक्त बनाइये । गाली दी किसीने तो सोचो, 'वह तो आकाश में चली गयी, मेरा क्या बिगड़ता है ! और देता है तो हाड़-मांस के शरीर को देता है ।' यदि वह दोष हमारे अंदर है तो हमें निकालना चाहिए और यदि ईष्या के कारण बद-इरादे से दोषारोपण करे, कुप्रचार करे-करावे तो हमें निर्द्वन्द्व रहना चाहिए ।
शरीर अन्दर के आत्मा का वस्त्र है वस्त्र को उसके पहनने वाले से अधिक प्यार मत करो

जीवन में ऐसे कर्म किये जायें कि एक यज्ञ बन जाय। दिन में ऐसे कर्म करो कि रात को आराम से नींद आये। आठ मास में ऐसे कर्म करो कि वर्षा के चार मास निश्चिन्तता से जी सकें। जीवन में ऐसे कर्म करो कि जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात हो जाय।
अतीत का शोक और भविष्य की चिंता क्यों करते हो?हे प्रिय !वर्तमान में साक्षी, तटस्थ और प्रसन्नात्मा होकर जीयो....

हम दुःख का कारण बाह्य परस्थिति को मानते हैं, किसी वस्तु या व्यक्ति को मानते हैं, वास्तव में दुःख का कारण हमारी खुद की नासमझी है । व्यक्ति, वस्तु और परस्थिति को ठीक करने से दुःख नहीं मिटता, दुःख मिटता है खुद की नासमझी मिटाने से और सच्ची समझ आती है सत्संग से, भगवन्नाम जप से । वास्तव में जीवमात्र का स्वभाव आनंदस्वभाव ही है । गुरुमंत्र की दीक्षा, सत्संग के आश्रय और भगवन्नाम के सुमिरन से अपने आनंद को जगायें ।

भगवान ने आपको संसार में दुःखी होने के लिए नहीं भेजा है, चिंता और तनाव में रहने के लिए नहीं भेजा है । चिंता की जगह भगवान के नाम का चिंतन करें, भगवान के नाम का आश्रय लें, भगवान का ध्यान करें, गुरु-ज्ञान की कुंजियाँ लेकर सुख-दुःख के सिर पर पैर रखकर अपने आनंदस्वभाव में स्थित हो जायें । वर्तमान में प्रसन्न रहें, अपने मन को कभी मलिन न होने दें । मंत्रों में सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने की विलक्षण क्षमता होती है । यंत्र से भी मंत्र अधिक प्रभावशाली होता है ।
सच्चे साधक :-

पुराने जमाने की बात है। किसी गांव में एक गाड़ीवान रहता था। वह लोगों को गांव से शहर और एक गांव से दूसरे गांव छोड़ने का काम करता था। लेकिन वह अपने काम से संतुष्ट नहीं था। हर समय वह परेशान रहता था। तभी उसने लोगों से एक संत की चर्चा सुनी। वह उनके पास पहुंच गया। उसने संत को प्रणाम कर कहा - महाराज , मैं एक गांव से दूसरे गांव गाड़ी ले जाता हूं। यह काम मुझे पसंद नहीं क्योंकि गाड़ी हांकने के कारण मैं भगवान की प्रार्थना करने से वंचित रहता हूं। मुझे ईश्वरोपासना का समय ही नहीं मिलता। मैं इस धंधे से छुटकारा चाहता हूं। संत ने पूछा - क्या गाड़ी चलाते समय तुम्हें रास्ते में गरीब अपंग और वृद्ध आदि मिलते हैं ? गाड़ीवान ने कहा - हां ऐसे लोग समय - समय पर मिलते रहते हैं।

संत ने पूछा - क्या तुम उनसे पैसे लेते हो या उन्हें मुफ्त में यात्रा कराते हो ? इस पर गाड़ीवान बोला - मैं गरीब , दीन - दुखियों , बूढ़े अपाहिज आदि से कुछ भी नहीं लेता। इस पर संत ने कहा - तब तो तुम इस पेशे को बिल्कुल मत छोड़ना। तुम गरीब और असहाय व्यक्तियों को एक जगह से दूसरी जगह छोड़कर जो पुण्य कमा रहे हो वह तुम्हें प्रार्थना से कभी नहीं मिलेगा। क्योंकि दीन - दुखियों की सेवा ही सच्ची प्रार्थना है। तुमने उनकी मदद कर उनसे कहीं बड़ा काम किया है जो दिन - रात भगवान का नाम जपते रहते हैं या तीर्थयात्रा या व्रत - उपवास करते हैं। तुम सच्चे साधक हो। इसलिए जाओ , जो कर रहे हो उसे ही मन लगाकर करते रहो। गाड़ीवान संतुष्ट होकर चला गया।
जब सबमे परमात्मबुद्धि की जाती है
तब सब कुछ परमात्मा ही है
ऐसा दिखने लगता है | फिर इस
परमात्मदृष्टिसे भी उपराम होने से
संपूर्ण संशय स्वतः
निवृत्त हो जाते है |

- पूज्य गुरुदेव
तूफान और आँधी हमको न रोक पाये।
वे और थे मुसाफिर जो पथ से लौट आये।।
मरने के सब इरादे जीने के काम आये।
हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।।

ऐसा कौन है जो तुम्हें दुःखी कर सके? तुम यदि न चाहो तो दुःखों की क्या मजाल है जो तुम्हारा स्पर्श भी कर सके? अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड को जो चला रहा है वह चेतन तुम्हीं हो।
हम दुःख का कारण बाह्य परस्थिति को मानते हैं, किसी वस्तु या व्यक्ति को मानते हैं, वास्तव में दुःख का कारण हमारी खुद की नासमझी है । व्यक्ति, वस्तु और परस्थिति को ठीक करने से दुःख नहीं मिटता, दुःख मिटता है खुद की नासमझी मिटाने से और सच्ची समझ आती है सत्संग से, भगवन्नाम जप से । वास्तव में जीवमात्र का स्वभाव आनंदस्वभाव ही है । गुरुमंत्र की दीक्षा, सत्संग के आश्रय और भगवन्नाम के सुमिरन से अपने आनंद को जगायें ।

हमारी बुद्धि का दुर्भाग्य तो यह है कि जो सदा साथ में है उसी साथी से मिलने के लिए तत्परता नहीं आती। जो हाजरा-हजूर है उससे मिलने की तत्परता नहीं आती। वह सदा हमारे साथ होने पर भी हम अपने को अकेला मानते हैं कि दुनियाँ में हमारा कोई नहीं। हम कितना अनादर करते हैं अपने ईश्वर का !

'हे धन ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे पति ! तू मेरी रक्षा कर। पत्नी ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे बेटे ! बुढ़ापे में तू मेरी रक्षा कर।' हम ईश्वरीय विधान का कितना अनादर कर रहे हैं !!

बेटा रक्षा करेगा ? पति रक्षा करेगा ? पत्नी रक्षा करेगी ? धन रक्षा करेगा ? लाखों-लाखों पति होते हुए भी पत्नियाँ मर गईं। लाखों-लाखों बेटे होते हुए भी बाप परेशान रहे। लाखों-लाखों बाप होते हुए भी बेटे परेशान रहे क्योंकि बापों में बाप, बेटों में बेटा, पतियों में पति, पत्नियों में पत्नी बन कर जो बैठा है उस प्यारे के तरफ हमारी निगाह नहीं जाती।

भूल्या जभी रबनू तभी व्यापा रोग।

जब उस सत्य को भूले हैं, ईश्वरीय विधान को भूले हैं तभी जन्म-मरण के रोग, भय, शोक, दुःख चिन्ता आदि सब घेरे रहते हैं। अतः बार-बार मन को इन विचारों से भरकर, अन्तर्यामी को साक्षी समझकर प्रार्थना करते जाएँ, प्रेरणा लेते जाएँ और जीवन की शाम होने से पहले तदाकार हो जाएँ।

ॐ शांति...... ॐ आनन्द...... ॐ....ॐ.....ॐ....।

शांति.... शांति.....। वाह प्रभु ! तेरी जय हो ! ईश्वरीय विधान। तुझे नमस्कार ! हे ईश्वर ! तू ही अपनी भक्ति दे और अपनी ओर शींच ले।

नारायण..... नारायण..... नारायण.....

विधान का स्मरण करके साधना करेंगे तो आपकी सहज साधना हो जायगी। गिरि गुफा में तप करने, समाधि लगाने नहीं जाना पड़ेगा। सतत सावधान रहें तो सहज साधना हो जाएगी। ईश्वरीय विधान को समझकर जीवन जिएं, उसके साथ जुड़े रहें तो सहज साधना हो जाएगी |

- पूज्य गुरुदेव