Monday, June 28, 2010

'उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।' (गीताः ४.३४)

मात पिता गुरू प्रभु चरणों में...............

मात पिता गुरू चरणों में प्रणवत बारम्बार।हम पर किया बड़ा उपकार।
हम पर किया बड़ा उपकार। ।।टेक।।

(1) माता ने जो कष्ट उठाया, वह ऋण कभी न जाए चुकाया।
अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, ममता की दी शीतल छाया।।
जिनकी गोदी में पलकर हम कहलाते होशियार,
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(2) पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया।
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया।।
जोड़-जोड़ अपनी संपत्ति का बना दिया हकदार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(3) तत्त्वज्ञान गुरू ने दरशाया, अंधकार सब दूर हटाया।
हृदय में भक्तिदीप जला कर, हरि दर्शन का मार्ग बताया।
बिनु स्वारथ ही कृपा करें वे, कितने बड़े हैं उदार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(4) प्रभु किरपा से नर तन पाया, संत मिलन का साज सजाया।
बल, बुद्धि और विद्या देकर सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया।
जो भी इनकी शरण में आता, कर देते उद्धार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।
ये जितने बुरे क्षेम हैं वह अपनेमें तो आवेंगे नहीं और भगवान्‌ की लीलामें दूसरे में आवे तो समझे अब भगवान्‌ क्रोध के रुप में आये हैं।अब भगवान्‌ इस रोग के रुपमें आये हैं।इस प्रकार इन सारे भावों में भी भगवान्‌ का दर्शन करें।

हे नाथ ! हृदयमें आपकी लगन लग जाय। दिल में आप धँस जाओ। आपकी रुपमाधुरी आँखोंमें समा जाय, आपके लिये उत्कट अनुराग हो जाय। बस,बस इतना ही और कुछ नहीं चाहिये।
कसौटी कसके देखो कि हम भगवान्‌ का कितना आदर करते हैं,तब पता लगेगा । भगवन्नाम भूल गये तो कोई बात नहीं है,पर पाँच रुपये भी कहीं भूल गये तो खटकेगा।

प्रतिष्ठा,कीर्ति,मान,बड़ाई हमारे लिये कलंक हैं।उनका घोर विरोध करना चाहिये ।हम खुद भी विरोध करें औरोंको भी विरोध करनेके लिये कहें और यह बात लोगोंकी दृष्टिमें ला देवें कि यह बहुत बुरी चीज है।

Monday, June 21, 2010

""तू गुलाब होकर महेक,तुजे जमाना जाने...........""

सबके अपने अपने हाथ में है उस रब का दिया हुआ अमूल्य जीवन......
उसे कैसा बनाना है ,उसे कैसे उन्नत करना है ,वो सब अपने अपने हिसाब से सभी कोई जनता है....
पर वैसा जीवन बनाने के लिए प्रयास नहीं किये जाते है........
प्रसन्नता ,आनंद ,माधुर्यता ,पवित्रता और खुशिया सबके जीवन की मांग है.......
बस... एक गुलाब की नाई अपने जीवन को बनाने का प्रयत्न किया जाये......
गुलाब को देखिये,उसका स्वभाव है की सदैव चारो और खुशबू फैलाना .......
वो जहा जाता है वह जगह को पूर्ण सुवासित बना देता है.......
हम सबका जीवन भी हमें चाहिए की उसी के अनुरूप बनाते जाये......
न किसी से राग,न किसी से द्वेष,न ही किसी के लिए बदले की भावना .......
सबका हित सोचे.....सदा मंगलमय चिंतन करे..........
गुलाब के फूल को सुगर पे रखो......गुड पर रखो.....
किसी भी वस्तु पर रख दो.... फिर उसकी खुशबू देखे......
कोई फर्क नहीं पड़ेगा....उसमे से गुलाब की ही सुवास आयेगी.....
ठीक उसू तरह गृहस्थ धर्म में रहते हुए रोज-रोज अनेक और भिन्न -भिन्न भांति के लोगो से मिलना पड़ता है, रिश्ता निभाना पड़ता है........
पर समाज में भी गुलाब की तरह जिए.......
किसी की क्या मजाल की तुम्हारी आत्मा मस्ती की जड़े हिला सके? अपने अपने बाल- बच्चो को भी ऐसे तो मजबूत बनाये....
की २०-२५ के ग्रुप में आपका बच्चा खड़ा हो तो भी वो अलग तैर जाना चाहिए......
उसकी एक अलग पहेचान होनी चाहिए........ बस......
उसे ऐसा बनाये की वो आगे चलकर एक गुलाब की नाई चारो दिशाओ में खुशबू ही खुशबू फैलाये...... और अपने माता-पिता और गुरुजनों का नाम रोशन करे...........
""तू गुलाब होकर महेक,तुजे जमाना जाने..........."
" हरी ॐ ...नारायण हरी......ॐ नमो भगवते वासुदेवाय..........

सतशिष्य ......................

भगवान बुद्ध ने एक बार घोषणा की किः "अब महानिर्वाण का समय नजदीक आ रहा है। धर्मसंघ के जो सेनापति हैं,कोषाध्यक्ष हैं, प्रचार मंत्री हैं, व्यवस्थापक हैं तथा अन्य सब भिक्षुक बैठे हैं उन सबमें से जो मेरा पट्टशिष्य होना चाहता हो, जिसको मैं अपना विशेष शिष्य घोषित कर सकूँ ऐसा व्यक्ति उठे और आगे आ जाये।"

बुद्ध का विशेष शिष्य होने के लिए कौन इन्कार करे ? सबके मन में हुआ कि भगवान का विशेष शिष्य बनने से विशेष मान मिलेगा, विशेष पद मिलेगा, विशेष वस्त्र और भिक्षा मिलेगी। एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरू का मान हो, यश हो, चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरू के ऊपर कीचड़ उछाला जायेगा, कठिन समय आयेगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही टिकेंगे।

बुद्ध के सामने सब मेवाभगत सत्शिष्य होने के लिये अपनी ऊँगली एक के बादएक उठाने लगे। बुद्ध सबको इन्कार करते गये। उनको अपना विशेष उत्तराधिकारी होने के लिए कोई योग्य नहीं जान पड़ा। प्रचारमंत्री खड़ा हुआ। बुद्ध ने इशारे से मना किया। कोषाध्यक्ष खड़ा हुआ। बुद्ध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई फिर भी आनन्द नहीं उठा। अन्य भिक्षुओं ने घुस-पुस करके समझाया कि भगवान के संतोष के खातिर तुम उम्मीदवार हो जाओ मगर आनन्द खामोश रहा। आखिर बुद्ध बोल उठेः "आनन्द क्यों नहीं उठता है ?" आनन्द बोलाः "मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर, आपके कृपापात्र के रूप में तिलक तो करवा लूँ लेकिन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ।

बाद में आपका सत्शिष्य बन पाऊँगा।" "वे चार वरदान कौन-से हैं ?" बुद्ध ने पूछा। "आपको जो बढ़िया भोजन मिले, भिक्षा ग्रहण करने के लिए निमंत्रण मिले उसमें मेरा प्रवेश न हो। आपका जो बढ़िया विशेष आवास हो उसमें मेरा निवास न हो। आपको जो भेंट-पूजा और आदर-मान मिले उस समय मैं वहाँ से दूर रहूँ।आपकी जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा होती हो वहाँ मुझे आपके सत्शिष्य के रूप मेघोषित न किया जाए। इस ढंग से रहने की आज्ञा हो तो मैं सदा के लिए आपके चरणों में अर्पित हूँ।" आज भी लोग आनन्द को आदर से याद करते हैं

आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले.....................

जैसे, कोई सोचता है कि तीन घण्टे का समय है। चलो, सिनेमा देख लें। सिनेमा में दूसरी सिनेमा के एवं दूसरी कई चीजों के विज्ञापन भी दिखाये जाते हैं। इससे एक सिनेमा देखते-देखते दूसरी सिनेमा देखने की एवं दूसरी चीजें खरीदने की वासना जाग उठती है। वासनाओं का अन्त नहीं होता। वासनाओं का अन्त नहीं होता। इसलिए यह जीव बेचारा परमात्मा तक नहीं पहुँच पाता। वासना से ग्रस्त मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती है तो जीव जीने की और भोगने की वासना से आक्रान्त रहता है।

जो चैतन्य जीने और भोगने की इच्छा से आक्रान्त रहता है उसी चैतन्य का नाम जीव पड़ गया। वास्तव में जीव जैसी कोई ठोस चीज नहीं।

जीव ने अच्छे कर्म किये, सात्त्विक कर्म किये, भोग भोगे तो सही लेकिन ईमानदारी से, त्याग से, सेवाभाव से, भक्ति से अच्छे संस्कार भी सर्जित किये, परलोक में भी सुखी होने के लिए दान-पुण्य किये, सेवाकार्य किये तो उसकी मति में अच्छे सात्त्विक सुख भोगने की इच्छा आयेगी। वह जब प्राण त्याग करेगा तब सत्त्वगुण की प्रधानता रहेगी और वह स्वर्ग में जाएगा।

जीव को अगर हल्के सुख भोगने की इच्छा रही तो वह नीचे के केन्द्रों में ही उलझा रहेगा। मानो उसे काम भोगने की इच्छा रही तो मरने के बाद उसे स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं, मनुष्य होने की भी जरूरत नहीं। उसकी शिश्नेन्द्रिय को भोग भोगने की अधिक-से-अधिक छूट मिल जाय ऐसी योनि में प्रकृति उसे भेज देगी। शूकर, कूकर, कबूतर का शरीर दे देगी। उस योनि में एकादशी, व्रत, नियम, बच्चों को पढ़ाने की, शादी कराने की जिम्मेदारी आदि कुछ बन्धन नहीं रहेंगे। जीव वहाँ अपने को शिश्नेन्द्रिय के भोग में खपा देगा।

इस प्रकार जिस इन्द्रिय का अधिक आकर्षण होता है उस इन्द्रिय को अधिक भोग मिल सके ऐसे तन में प्रकृति भेज देती है। क्योंकि तुम्हारी मति उस सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म से स्फुरी थी इसलिए उस मति में सत्य संकल्प की शक्ति रहती है। वह जैसी इच्छा करती है, देर सवेर वह काम होकर रहता है।

इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हम जो संकल्प करें, मन-इन्द्रियों की बातों पर जो निर्णय दें वह सदगुरू, शास्त्र और अपने विवेक से नाप-तौलकर देना चाहिए। विवेक विचार से परिशुद्ध होकर इच्छा को पुष्टि देने या न देने का निर्णय करना चाहिए।

इच्छा काटने की कला आ जाएगी तो मन निर्वासनिक बनने लगेगा। मन निर्वासनिक होगा तो बुद्धि निश्चिन्त तत्त्व परमात्मा में टिकेगी। मन में अगर हल्की वासना होगी तो हल्का जीवन, ऊँची वासना होगी तो ऊँचे लोक-लोकान्तर का जीवन और मिश्रित वासना होगी तो पुण्य-पाप की खिचड़ी खाने के लिए मनुष्य शरीर मिलेगा। सत्संग और तप करके आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान पा ले तो सबसे ऊँचा जीवन बन जाए। प्रारंभ में यह कार्य थोड़ा कठिन लग सकता है लेकिन एक बार आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले तो मति को, मन को, इन्द्रियों को जो शान्ति, आनन्द और रस मिलता है वह रस, शान्ति और आनन्द इहलोक में तो क्या, स्वर्गलोक में और ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलते। ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
जब तक आप अपने अंतःकरण के अन्धकार को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होंगेतब तक तीन सौ तैंतीस करोड़ कृष्ण अवतार ले लें फिर भी आपको परम लाभ नहींहोगा
शरीर अन्दर के आत्मा का वस्त्र है वस्त्र को उसके पहनने वाले से अधिक प्यार मत करो
जिस क्षण आप सांसारिक पदार्थों में सुख की खोज करना छोड़ देंगे और स्वाधीनहो जायेंगे, अपने अन्दर की वास्तविकता का अनुभव करेंगे, उसी क्षण आपकोईश्वर के पास जाना नहीं पड़ेगा ईश्वर स्वयं आपके पास आयेंगे यही दैवीविधान है

Sunday, June 20, 2010

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं
जीवन में ऐसे कर्म किये जायें कि एक यज्ञ बन जाय। दिन में ऐसे कर्म करो कि रात को आराम से नींद आये। आठ मास में ऐसे कर्म करो कि वर्षा के चार मास निश्चिन्तता से जी सकें। जीवन में ऐसे कर्म करो कि जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात हो जाय।

Tuesday, June 15, 2010

जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग होता (कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता
सदा अंतर्मुख होकर रहो। अंतर्मुख होने से हृदय में जो वास्तविक आनंद है उसकी झलकें मिलती हैं। मनुष्य जन्म का उद्देश्य उसी आनंद को प्राप्त करना है। जिसने मनुष्य शरीर पाकर भी उसका अनुभव नहीं किया, उसका सब किया-कराया व्यर्थ हो जाता है।
अपने अन्दर के परमेश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास करो जनता एवं बहुमति को आप किसी प्रकार से संतुष्ट नहीं कर सकते जब आपके आत्मदेवता प्रसन्न होंगे तो जनता आपसे अवश्य संतुष्ट होगी
जो दसों दिशाओ और तीनों कालों में परिपूर्ण है, जो अनंत है, जो चैतन्य-स्वरूप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शांत और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्म-रूप परमात्मा को नमस्कार है
जैसे, पलाश के फूल में सुगंध नहीं होने से उसे कोई पूछता नही है, परंतु वह भी जब पान का संग करता है तो राजा के हाथ तक भी पहुँच जाता है। इसी प्रकार जो उन्नति करना चाहता हो उसे महापुरूषों का संग करना चाहिए।
यदि तू निज स्वरूप का प्रेमी बन जाये तो आजीविका की चिन्ता, रमणियों, श्रवण-मनन और शत्रुओं का दुखद स्मरण यह सब छूट जाये उदर-चिन्ता प्रिय चर्चा विरही को जैसे खले निज स्वरूप में निष्ठा हो तो ये सभी सहज टले
सयाने सज्जन अपने गुरू के चरणकमल के निरन्तर ध्यान रूपी रसपान से अपने जीवन को रसमय बनाते है और गुरू के ज्ञान रूपी तलवार को साथ में रखकर मोहमाया के बन्धनों को काट डालते हैं।
शरीर से वैराग्य होना प्रथम कोटि का वैराग्य है तथा अहंता ममता से ऊपर उठ जाना दूसरे प्रकार का वैराग्य है ।लोगों को घर से तो वैराग्य हो जाता है, परंतु शरीर से वैराग्य होना कठिन है। इससे भी कठिन है शरीर का अत्यन्त अभाव अनुभव करना। यह तो सद्गुरु की विशेष कृपा से किसी किसीको ही होता है/
वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ ।जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसको भी त्याग देना, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है।
अपने गुरू से ऐसी शिकायत नहीं करना कि आपके अधिक काम के कारण साधना के लिए समय नहीं बचता। नींद के तथा गपशप लगाने के समय में कटौती करो और कम खाओ। तो आपको साधना के लिए काफी समय मिलेगा। आचार्य की सेवा ही सर्वोच्च साधना है।