Monday, June 21, 2010

आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले.....................

जैसे, कोई सोचता है कि तीन घण्टे का समय है। चलो, सिनेमा देख लें। सिनेमा में दूसरी सिनेमा के एवं दूसरी कई चीजों के विज्ञापन भी दिखाये जाते हैं। इससे एक सिनेमा देखते-देखते दूसरी सिनेमा देखने की एवं दूसरी चीजें खरीदने की वासना जाग उठती है। वासनाओं का अन्त नहीं होता। वासनाओं का अन्त नहीं होता। इसलिए यह जीव बेचारा परमात्मा तक नहीं पहुँच पाता। वासना से ग्रस्त मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती है तो जीव जीने की और भोगने की वासना से आक्रान्त रहता है।

जो चैतन्य जीने और भोगने की इच्छा से आक्रान्त रहता है उसी चैतन्य का नाम जीव पड़ गया। वास्तव में जीव जैसी कोई ठोस चीज नहीं।

जीव ने अच्छे कर्म किये, सात्त्विक कर्म किये, भोग भोगे तो सही लेकिन ईमानदारी से, त्याग से, सेवाभाव से, भक्ति से अच्छे संस्कार भी सर्जित किये, परलोक में भी सुखी होने के लिए दान-पुण्य किये, सेवाकार्य किये तो उसकी मति में अच्छे सात्त्विक सुख भोगने की इच्छा आयेगी। वह जब प्राण त्याग करेगा तब सत्त्वगुण की प्रधानता रहेगी और वह स्वर्ग में जाएगा।

जीव को अगर हल्के सुख भोगने की इच्छा रही तो वह नीचे के केन्द्रों में ही उलझा रहेगा। मानो उसे काम भोगने की इच्छा रही तो मरने के बाद उसे स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं, मनुष्य होने की भी जरूरत नहीं। उसकी शिश्नेन्द्रिय को भोग भोगने की अधिक-से-अधिक छूट मिल जाय ऐसी योनि में प्रकृति उसे भेज देगी। शूकर, कूकर, कबूतर का शरीर दे देगी। उस योनि में एकादशी, व्रत, नियम, बच्चों को पढ़ाने की, शादी कराने की जिम्मेदारी आदि कुछ बन्धन नहीं रहेंगे। जीव वहाँ अपने को शिश्नेन्द्रिय के भोग में खपा देगा।

इस प्रकार जिस इन्द्रिय का अधिक आकर्षण होता है उस इन्द्रिय को अधिक भोग मिल सके ऐसे तन में प्रकृति भेज देती है। क्योंकि तुम्हारी मति उस सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म से स्फुरी थी इसलिए उस मति में सत्य संकल्प की शक्ति रहती है। वह जैसी इच्छा करती है, देर सवेर वह काम होकर रहता है।

इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हम जो संकल्प करें, मन-इन्द्रियों की बातों पर जो निर्णय दें वह सदगुरू, शास्त्र और अपने विवेक से नाप-तौलकर देना चाहिए। विवेक विचार से परिशुद्ध होकर इच्छा को पुष्टि देने या न देने का निर्णय करना चाहिए।

इच्छा काटने की कला आ जाएगी तो मन निर्वासनिक बनने लगेगा। मन निर्वासनिक होगा तो बुद्धि निश्चिन्त तत्त्व परमात्मा में टिकेगी। मन में अगर हल्की वासना होगी तो हल्का जीवन, ऊँची वासना होगी तो ऊँचे लोक-लोकान्तर का जीवन और मिश्रित वासना होगी तो पुण्य-पाप की खिचड़ी खाने के लिए मनुष्य शरीर मिलेगा। सत्संग और तप करके आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान पा ले तो सबसे ऊँचा जीवन बन जाए। प्रारंभ में यह कार्य थोड़ा कठिन लग सकता है लेकिन एक बार आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले तो मति को, मन को, इन्द्रियों को जो शान्ति, आनन्द और रस मिलता है वह रस, शान्ति और आनन्द इहलोक में तो क्या, स्वर्गलोक में और ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलते। ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।

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