Sunday, September 5, 2010
Monday, June 28, 2010
मात पिता गुरू प्रभु चरणों में...............
हम पर किया बड़ा उपकार। ।।टेक।।
(1) माता ने जो कष्ट उठाया, वह ऋण कभी न जाए चुकाया।
अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, ममता की दी शीतल छाया।।
जिनकी गोदी में पलकर हम कहलाते होशियार,
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।
(2) पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया।
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया।।
जोड़-जोड़ अपनी संपत्ति का बना दिया हकदार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।
(3) तत्त्वज्ञान गुरू ने दरशाया, अंधकार सब दूर हटाया।
हृदय में भक्तिदीप जला कर, हरि दर्शन का मार्ग बताया।
बिनु स्वारथ ही कृपा करें वे, कितने बड़े हैं उदार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।
(4) प्रभु किरपा से नर तन पाया, संत मिलन का साज सजाया।
बल, बुद्धि और विद्या देकर सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया।
जो भी इनकी शरण में आता, कर देते उद्धार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।
हे नाथ ! हृदयमें आपकी लगन लग जाय। दिल में आप धँस जाओ। आपकी रुपमाधुरी आँखोंमें समा जाय, आपके लिये उत्कट अनुराग हो जाय। बस,बस इतना ही और कुछ नहीं चाहिये।
प्रतिष्ठा,कीर्ति,मान,बड़ाई हमारे लिये कलंक हैं।उनका घोर विरोध करना चाहिये ।हम खुद भी विरोध करें औरोंको भी विरोध करनेके लिये कहें और यह बात लोगोंकी दृष्टिमें ला देवें कि यह बहुत बुरी चीज है।
Monday, June 21, 2010
""तू गुलाब होकर महेक,तुजे जमाना जाने...........""
उसे कैसा बनाना है ,उसे कैसे उन्नत करना है ,वो सब अपने अपने हिसाब से सभी कोई जनता है....
पर वैसा जीवन बनाने के लिए प्रयास नहीं किये जाते है........
प्रसन्नता ,आनंद ,माधुर्यता ,पवित्रता और खुशिया सबके जीवन की मांग है.......
बस... एक गुलाब की नाई अपने जीवन को बनाने का प्रयत्न किया जाये......
गुलाब को देखिये,उसका स्वभाव है की सदैव चारो और खुशबू फैलाना .......
वो जहा जाता है वह जगह को पूर्ण सुवासित बना देता है.......
हम सबका जीवन भी हमें चाहिए की उसी के अनुरूप बनाते जाये......
न किसी से राग,न किसी से द्वेष,न ही किसी के लिए बदले की भावना .......
सबका हित सोचे.....सदा मंगलमय चिंतन करे..........
गुलाब के फूल को सुगर पे रखो......गुड पर रखो.....
किसी भी वस्तु पर रख दो.... फिर उसकी खुशबू देखे......
कोई फर्क नहीं पड़ेगा....उसमे से गुलाब की ही सुवास आयेगी.....
ठीक उसू तरह गृहस्थ धर्म में रहते हुए रोज-रोज अनेक और भिन्न -भिन्न भांति के लोगो से मिलना पड़ता है, रिश्ता निभाना पड़ता है........
पर समाज में भी गुलाब की तरह जिए.......
किसी की क्या मजाल की तुम्हारी आत्मा मस्ती की जड़े हिला सके? अपने अपने बाल- बच्चो को भी ऐसे तो मजबूत बनाये....
की २०-२५ के ग्रुप में आपका बच्चा खड़ा हो तो भी वो अलग तैर जाना चाहिए......
उसकी एक अलग पहेचान होनी चाहिए........ बस......
उसे ऐसा बनाये की वो आगे चलकर एक गुलाब की नाई चारो दिशाओ में खुशबू ही खुशबू फैलाये...... और अपने माता-पिता और गुरुजनों का नाम रोशन करे...........
""तू गुलाब होकर महेक,तुजे जमाना जाने..........."
" हरी ॐ ...नारायण हरी......ॐ नमो भगवते वासुदेवाय..........
सतशिष्य ......................
बुद्ध का विशेष शिष्य होने के लिए कौन इन्कार करे ? सबके मन में हुआ कि भगवान का विशेष शिष्य बनने से विशेष मान मिलेगा, विशेष पद मिलेगा, विशेष वस्त्र और भिक्षा मिलेगी। एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरू का मान हो, यश हो, चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरू के ऊपर कीचड़ उछाला जायेगा, कठिन समय आयेगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही टिकेंगे।
बुद्ध के सामने सब मेवाभगत सत्शिष्य होने के लिये अपनी ऊँगली एक के बादएक उठाने लगे। बुद्ध सबको इन्कार करते गये। उनको अपना विशेष उत्तराधिकारी होने के लिए कोई योग्य नहीं जान पड़ा। प्रचारमंत्री खड़ा हुआ। बुद्ध ने इशारे से मना किया। कोषाध्यक्ष खड़ा हुआ। बुद्ध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई फिर भी आनन्द नहीं उठा। अन्य भिक्षुओं ने घुस-पुस करके समझाया कि भगवान के संतोष के खातिर तुम उम्मीदवार हो जाओ मगर आनन्द खामोश रहा। आखिर बुद्ध बोल उठेः "आनन्द क्यों नहीं उठता है ?" आनन्द बोलाः "मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर, आपके कृपापात्र के रूप में तिलक तो करवा लूँ लेकिन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ।
बाद में आपका सत्शिष्य बन पाऊँगा।" "वे चार वरदान कौन-से हैं ?" बुद्ध ने पूछा। "आपको जो बढ़िया भोजन मिले, भिक्षा ग्रहण करने के लिए निमंत्रण मिले उसमें मेरा प्रवेश न हो। आपका जो बढ़िया विशेष आवास हो उसमें मेरा निवास न हो। आपको जो भेंट-पूजा और आदर-मान मिले उस समय मैं वहाँ से दूर रहूँ।आपकी जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा होती हो वहाँ मुझे आपके सत्शिष्य के रूप मेघोषित न किया जाए। इस ढंग से रहने की आज्ञा हो तो मैं सदा के लिए आपके चरणों में अर्पित हूँ।" आज भी लोग आनन्द को आदर से याद करते हैं
आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले.....................
जो चैतन्य जीने और भोगने की इच्छा से आक्रान्त रहता है उसी चैतन्य का नाम जीव पड़ गया। वास्तव में जीव जैसी कोई ठोस चीज नहीं।
जीव ने अच्छे कर्म किये, सात्त्विक कर्म किये, भोग भोगे तो सही लेकिन ईमानदारी से, त्याग से, सेवाभाव से, भक्ति से अच्छे संस्कार भी सर्जित किये, परलोक में भी सुखी होने के लिए दान-पुण्य किये, सेवाकार्य किये तो उसकी मति में अच्छे सात्त्विक सुख भोगने की इच्छा आयेगी। वह जब प्राण त्याग करेगा तब सत्त्वगुण की प्रधानता रहेगी और वह स्वर्ग में जाएगा।
जीव को अगर हल्के सुख भोगने की इच्छा रही तो वह नीचे के केन्द्रों में ही उलझा रहेगा। मानो उसे काम भोगने की इच्छा रही तो मरने के बाद उसे स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं, मनुष्य होने की भी जरूरत नहीं। उसकी शिश्नेन्द्रिय को भोग भोगने की अधिक-से-अधिक छूट मिल जाय ऐसी योनि में प्रकृति उसे भेज देगी। शूकर, कूकर, कबूतर का शरीर दे देगी। उस योनि में एकादशी, व्रत, नियम, बच्चों को पढ़ाने की, शादी कराने की जिम्मेदारी आदि कुछ बन्धन नहीं रहेंगे। जीव वहाँ अपने को शिश्नेन्द्रिय के भोग में खपा देगा।
इस प्रकार जिस इन्द्रिय का अधिक आकर्षण होता है उस इन्द्रिय को अधिक भोग मिल सके ऐसे तन में प्रकृति भेज देती है। क्योंकि तुम्हारी मति उस सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म से स्फुरी थी इसलिए उस मति में सत्य संकल्प की शक्ति रहती है। वह जैसी इच्छा करती है, देर सवेर वह काम होकर रहता है।
इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हम जो संकल्प करें, मन-इन्द्रियों की बातों पर जो निर्णय दें वह सदगुरू, शास्त्र और अपने विवेक से नाप-तौलकर देना चाहिए। विवेक विचार से परिशुद्ध होकर इच्छा को पुष्टि देने या न देने का निर्णय करना चाहिए।
इच्छा काटने की कला आ जाएगी तो मन निर्वासनिक बनने लगेगा। मन निर्वासनिक होगा तो बुद्धि निश्चिन्त तत्त्व परमात्मा में टिकेगी। मन में अगर हल्की वासना होगी तो हल्का जीवन, ऊँची वासना होगी तो ऊँचे लोक-लोकान्तर का जीवन और मिश्रित वासना होगी तो पुण्य-पाप की खिचड़ी खाने के लिए मनुष्य शरीर मिलेगा। सत्संग और तप करके आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान पा ले तो सबसे ऊँचा जीवन बन जाए। प्रारंभ में यह कार्य थोड़ा कठिन लग सकता है लेकिन एक बार आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले तो मति को, मन को, इन्द्रियों को जो शान्ति, आनन्द और रस मिलता है वह रस, शान्ति और आनन्द इहलोक में तो क्या, स्वर्गलोक में और ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलते। ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
Sunday, June 20, 2010
Tuesday, June 15, 2010
Wednesday, May 19, 2010
Monday, May 17, 2010
ગુરુ બાવની .....
ભક્ત જનોના કરવા ઉદ્ધાર, ધર્યો મનુષ્ય દેહ અવતાર,
ગુરુજી તમારો મહિમા અપાર, ગુણ ગાતા નહિ આવે પાર,
વિનવું તમને વારંવાર, વંદુ તમને જુગડાધાર,
લીલા તમારી અપરંપાર,પલમાં કિધા કહીને નિહાલ,
પવિત્ર ભૂમિ સુંદર ધામ, ત્યાં કીધો ગુરુજી એ મુકામ,
ભક્ત હ્રિદય માં તમારું નામ, તમ ચારનો માં અડસઠ ધામ,
સમરું તમને સ્વાસેસ્વાસ, આવી હ્રીદયે કરજો વાસ,
ભક્ત જનોના કરવા કાજ, પ્રમે પધારો ગુરુજી આજ,
ભક્તિ ની એ બાંધી પાજ, ભક્તિ કરતાન જાયે લાજ,
દિવ્ય ચક્ષુ દિવ્ય જ્ઞાન, દેજો અમને ભક્તિ જ્ઞાન,
ખાધી ઠોકર જગની માંય, ત્યારે આવીયો ચારનો માંય,
મમ અવગુણ નો પાર નહિ, ભક્તિ ભાવ નું નામ નહિ,
પણ છો ગુરુજી આપ દયાળ, સરણે રાખો જણી બાળ,
દિવ્ય અનુપમ તેજ અપાર, ક્યાં પામું પ્રભુ તમારો પાળ,
સ્થાપો મુજને હ્રીદયા માંય, રાખો મુજને ચારનો માંય,
ધ્યાન ધારે કોઈ ભક્ત સુજાન, જ્ઞાન ભાનુ નો થશે ભાણ,
ભક્ત કહે છે રાખી આશ, ગુરુજી પૂરશે સૌની આશ,
દેહ દેવળ ના આતમ રામ, ભક્તો કરે છે પ્રમે પ્રણામ...
ભક્તો કરે છે પ્રમે પ્રણામ..., ભક્તો કરે છે પ્રમે પ્રણામ......
Friday, May 14, 2010
Friday, May 7, 2010
Sunday, May 2, 2010
Thursday, April 22, 2010
Tuesday, April 20, 2010
यह जीव जब अपने शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यस्वरूप को वरना चाहता है तो वह प्रेम में चड़ता हैजीव किसी हाड-मांस के पति या पतनी को वरकर विकारी सुख भोगना चाहता है तब प्रेम में पड़ता हैशरीर के द्वारा जब सुख लेने की लालच होती है तो प्रेम में पड़ता है और अंतर्मुख होकर जब परम सुख में गोता मारने की इच्छा होती है तब प्रेम में चड़ता है प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकताप्रेम में जो पड़े,वह संसार है..प्रेम में जो चड़े,वह साक्षात्कार है
कोई प्रेम में पड़ता है तो कोई प्रेम में चड़ता है प्रेम में पड़ना एक बात है लेकिन प्रेम में चड़ना तो कोई निराली ही बात है
वे सत्पुरूष क्यों हैं ? कुदरत जिसकी सत्ता से चलती है उस सत्य में वे टिके हैं इसलिए सत्पुरूष हैं। हम लोग साधारण क्यों हैं ? हम लोग परिवर्तनशील, नश्वर, साधारण चीजों में उलझे हुए हैं इसलिए साधारण हैं।
संतोंके दर्शन,स्पर्श,उपदेश-श्रवण और चरणधूलिके सिर चढ़ानेकी बात तो दूर रही,जो कभी अपने मनसे संतोंका चिन्तन भी कर लेता है,वही शुद्धान्त:करण होकर भगव्तप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।
तुम्हारी 'मैं....मैं...' जहाँ से स्फुरित होकर आ रही है उस उदगम स्थान को नहीं भी जानते हो फिर भी उसे धन्यवाद देते हुए स्नेह करो। ऐसा करने से तुम्हारी संवित् वहीं पहुँचेगी जहाँ योगियों की संवित् पहुँचती है, जहाँ भक्तों की भाव संवित विश्रान्ति पाती है, तपस्वियों का तप जहाँ फलता है, ध्यानियों का ध्यान जहाँ से सिद्ध होता है और कर्मयोगियों को कर्म करने की सत्ता जहाँ से मिलती है।
Monday, April 19, 2010
शरीर संसार के लिए है। एकान्त अपने लिए है और प्रेम भगवान के लिए है। यह बात अगर समझ में आ जाय तो प्रेम से दिव्यता पैदा होगी, एकान्त से सामर्थ्य आयेगा और निष्कामता से बाह्य सफलताएँ तुम्हारे चरणों में रहेंगी।
धन से बेवकूफी नहीं मिटती है, सत्ता से बेवकूफी नहीं मिटती है, तपस्या से बेवकूफी नहीं मिटती है, व्रत रखने से बेवकूफी नहीं मिटती है। बेवकूफी मिटती है ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों के कृपा-प्रसाद से और सत्संग से, सत्शास्त्रों की रहमत से।
आनंद का ऐसा सागर मेरे पास था और मुझे पता न था अनंत प्रेम का दरिया मेरे भीतर लहरा रहा था और मैं भटक रहा था संसार के तुच्छ शुकों में! हे मेरे गुरुदेव! मुझे माफ़ कर देना
चन्द्रमा में अमृत बरसाने की सत्ता जहाँ से आती है वही चैतन्य तुम्हारे दिल को और तुम्हारी नस-नाड़ियों को, तुम्हारी आँखों को और मन-बुद्धि को स्फुरणा और शक्ति देता है। जो चैतन्य सत्ता सूर्य में प्रकाश और प्रभाव भरती है, चन्द्रमा में चाँदनी भरती है वही चैतन्य सत्ता तुम्हारे हाड़-मांस के शरीर में भी चेतना, प्रेम और आनन्द की धारा बहाती है।
Sunday, April 18, 2010
हे वत्स !उठ........... ऊपर उठ।प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा।दृढ़ निश्चय कर कि'अब अपना जीवनदिव्यता की तरफ लाऊँगा।
भगवान में इतना राग करो, उस शाश्वत चैतन्य में इतना राग करो कि नश्वर का राग स्मरण में भी न आये। शाश्वत के रस में इतना सराबोर हो जाओ, राम के रस में इतना तन्मय हो जाओ कि कामनाओं का दहकता हुआ, चिंगारियाँ फेंकता हुआ काम का दुःखद बड़वानल हमारे चित्त को न तपा सके, न सता सके।
संगी साथी चल गए सारे, कोई ना दिज्यो साथ lकहे तुलसी साथ न छोडे तेरा एक रघुनाथ.. ll..संगी साथी सब छुट जाते , साथ नही आते…मरने के बाद भी साथ नही छोड़ते वो है आप के रघुनाथ …आप का आत्मा…
Saturday, April 17, 2010
Thursday, April 15, 2010
Wednesday, April 14, 2010
Tuesday, April 13, 2010
अपने अन्दर से कभी कम होने मत देना प्रेम के भाव भाव को,शांति के स्वभाव को,ईश के प्रभाव को,श्रद्धा के सद्भाव को! बहुत जरुरी है परिवार के लिए शांति , समाज के लिए क्रांति , जीवन के लिए उन्नति, सफलता के लिए सम्मति!
"भविष्य जानने की कोशिश मत करो। भविष्य परमात्मा के हाथ में है, वर्तमान आप के हाथ में है। भूतकाल बीत गया, उस की कोई कीमत नहीं । वर्तमान को अच्छा बना रहे है तो भविष्य की नींव डाल रहे हैं ।"
शान्ति के समान कोई तप नहीं हे !संतोष से बढ्कर कोई सुख नहीं हे !तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं हे ! दया के समान कोई धर्म नहीं हे !सत्य जीवन हे और असत्य मृत्यु हे !घृणा करनी हे तो अपने दोषों से करो !लोभ करना हे तो प्रभू के स्मरण का करो !बैर करना हे तो अपने दुराचारों से करो !दूर रहना हे तो बुरे संग से रहो ! मोह करना हो तो परमात्मा से करो !
Sunday, April 11, 2010
Wednesday, April 7, 2010
गुरू
गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।
गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं
गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।
जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।
मेरे गुरूजी
लेकिन मुझे ऐसा क्यों लगता कि
तुम बिन मेरा जीवन अधूरा हैं
तुम्हारे अतिरिक्त नही कर पाता
मैं और कुछ भी चिंतन
यह स्मरण ही
अब मेरा जीवन हैं
परमात्मा
बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। 'आत्मा सच्चा है, 'मैं' जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा 'मैं' सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ' – इस तरह अपने 'मैं' स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि 'मैं चैतन्य आत्मा हूँ।' इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।
Thursday, April 1, 2010
dil ek mandir
Realisation of God
The man whispered,
"God, speak to me"
and a meadowlark sang.
But, the man did not hear.
So the man yelled,
"God, speak to me"
and the thunder rolled across the sky.
But, the man did not listen
The man looked around and said,
"God let me see you."
And a star shined brightly.
But the man did not see.
And, the man shouted,
"God show me a miracle."
And, a life was born. But,
the man did not notice
So, the man cried out in despair,
"Touch me God, and let me know you are here."
Whereupon, God reached down and touched the man.
But, the man brushed the butterfly away ...
and walked on.
I found this to be a great reminder that God is always around us in the little and simple things that we take for granted. Don't miss out on a blessing because it isn't packaged the way that you expect.
Wednesday, March 31, 2010
मन
“नानक ! दुखिया सब संसार ।”
मन को प्रतिदिन इन सब दुःखो का स्मरण कराइए । मन को अस्पतालों के रोगीजन दिखाइए, शवयात्रा दिखाइए, स्मशान-भूमि में घू-घू जलती हुई चिताएँ दिखाइए । उसे कहें : “रे मेरे मन ! अब तो मान ले मेरे लाल ! एक दिन मिट्टी में मिल जाना है अथवा अग्नि में खाक हो जाना है । विषय-भोगों के पीछे दौड़ता है पागल ! ये भोग तो दूसरी योनियों में भी मिलते हैं । मनुष्य-जन्म इन क्षुद्र वस्तुओं के लिए नहीं है । यह तो अमूल्य अवसर है । मनुष्य-जन्म में ही पुरुषार्थ साध सकते हैं । यदि इसे बर्बाद कर देगा तो बारंबार ऎसी देह नहीं मिलेगी । इसलिए ईश्वर-भजन कर, ध्यान कर, सत्संग सुन और संतों की शरण में जा । तेरी जन्मों की भूख मिट जायेगी । क्षुद्र विषय-सुखों के पीछे भागने की आदत छूट जायेगी । तू आनंद के महासागर में ओतप्रोत होकर आनंदस्वरुप हो जायेगा ।
अरे मन ! तू ज्योतिस्वरुप है । अपना मूल पहचान । चौरासी लाख के चक्कर से छूटने का यह अवसर तुझे मिला है और तू मुठ्ठीभर चनों के लिए इसे नीलाम कर देता है, पागल ।
इस प्रकार मन को समझाने से मन स्वतः ही समर्पण कर देगा । तत्पश्चात् एक आज्ञाकरी व बुद्धिमान बच्चे के समान आपके बताये हुए सन्मार्ग पर खुशी-खुशी चलेगा ।
जिसने अपना मन जीत लिया, उसने समस्त जगत को जीत लिया । वह राजाओं का राजा है, सम्राट है, सम्राटों का भी सम्राट है ।
Tuesday, March 30, 2010
मन का मैल
क्या पानी में मल मल नहावे,
अरे मन का मैल उतर प्यारे
क्या मथुरा क्या कासी धावे,
घाट में गोटा मर प्यारे
योग, साधन, भक्ति, इश्वर स्मरण, सत्संग अदि उपचारों से जब भली- भांति मन का सनसन हो जाता है भीतर का अंधकार रूपी मैल हट जाता है तब जिव की सर्वकालिक शुद्धि होती है
Monday, March 29, 2010
Sunday, March 28, 2010
संसारी आदमी कर्म को बंधनकारक बना देता है, साधक कर्म को अकर्म बनाने का यत्न करता है लेकिन सिद्ध पुरुष का प्रत्येक कर्म स्वाभाविक रूप से अकर्म ही होता है। रामजी युद्ध जैसा घोर कर्म करते हैं लेकिन अपनी ओर से युद्ध नहीं करते, रावण आमंत्रित करता है तब करते हैं। अतः उनका युद्ध जैसा घोर कर्म भी अकर्म ही है। आप भी कर्म करें तो अकर्ता होकर करें, न कि कर्ता होकर। कर्ता भाव से किया गया कर्म बंधन में डाल देता है एवं उसका फल भोगना ही पड़ता है।
हमारे जीवन से गुरू का सान्निध्य जब चला जाता है तो वह जगह मरने के लिए दुनिया की कोई भी हस्ती सक्षम नहीं होती। गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते।
गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं।
Saturday, March 27, 2010
Friday, March 26, 2010
प्रार्थना
अपने को कोसना नही की सब लोग सोये और मेरी नींद खुल गई. .नही नही!..
‘हे प्रभु मुझे जगाना चाहते है मोह के नींद से..
इसलिए तुम ने ये बाहर की नींद थोडी देर के लिए नही दी..
वाह प्रभु..वाह गुरुदेव..मुझे अपनी भक्ति देना ..
मैं आप की राह पर चल सकू ऐसी मुझे शक्ति देना..
मैं आप से कभी विमुख ना हो जाऊ..
मैं आप की बतायी राह कभी छोड़ ना दू..
’ ऐसी ह्रदय पूर्वक प्रार्थना की जाती है तो भगवान वो ह्रदय का प्रेम देखते है..
Thursday, March 25, 2010
Hai Nath Abto aise Daya Ho...
sahas ki bati kabhi bhi buje na,
visamta, andhera khud bahg jaye,
hai nath abto aise daya ho.....
karne jo aaye vahe ab kare ham,
anmol jivan ko sarthak kare ham,
tujmai hi priti badhtihi jaye,
hai nath abto aise daya ho.....
aisa jagado fir so na paye,
apne ko niskam prami banaye,
aisa samay fir aaye na aaye,
hai nath abto aise daya ho.....
chode kabhi ham na daman tumhara,
tujipe bharosa atal ho hamara,
shradha ko apni nit ham badhaye,
hai nath abto aise daya ho.....
saiyam, sadachar tyage kabhi na,
halke jagse bhage kabhi na,
aab tutke ham bikhar na jaye,
hai nath abto aise daya ho.....
sach-juth ke bhad ko ham samje,
mithiya najaro mai ham na ulje,
hriday se tari yaade na jaye,
hai nath abto aise daya ho...
jivan nirathak janena paye...
सदगुरु की पूजा
Wednesday, March 24, 2010
Tuesday, March 23, 2010
Himat na hariye
Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye ,
kam ese kijeye ki jinse ho sabka bhala , bat ise kijiye jisme ho amrit ho bhara
mithe boli bolke sabko prem se pukariye , kadve bol bol ke na jindgi bigadiye ,
Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye ,ache karm karte huwe dukh abhi agar aa bhi jaye , pichle karmo ka bhugtan kar lena , galtiyo se bachete huwe sadhna badaeiye ,
galtiyo se bachate huwe bhakti ko badiye , himat na har , himat na har ,
bapu tere sath hai himat na har , hriday ke kitab par yah bat lik dijiye ,
ban ke sache bhakat sache dil se amal kijiye , subh kam karke kamal ban khudh bhi taro ,
auro ko bhi tariye , jag me jagmagati huwei jindgi gujariye ,
Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye ,mushkaliyo ,mushibato ka karna hai jaldi khatma ,
to har samay kahena tera shukar he mere i pramatma , fariyad karte huwe jindgi na bigadiye ,
himat na har , himat na har , bapu tere sath hai himat na har Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye
श्री राम स्तुति
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं
हे मन! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर वे संसार के जन्म-मरणरूप दारुण भय को दूर करने वाले हैं, उनके नेत्र नव-विकसित कमल के सामान हैं, मुख-हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं
कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरं
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरं
उनके सौन्दर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीरों में मानो बिजली के सामान चमक रहा है, ऐसे पावन रूप जानकी
पति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ
भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकन्दनं
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं
हे मन ! दीनों के बन्धु, सूर्य के सामान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनंदकंद, कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के सामान दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं
जिनके मस्तक पर रत्न-जटित मुकुट, कानों में कुंडल, भाल पर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिए है -
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं
मम ह्रदय-कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं
- जो शिव, शेष, और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं; तुलसीदास प्रार्थना करते हैं की वे श्री रघुनाथजी मेरे हृदयकमल में सदा निवास करें
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो
करुना निधान सुजान सीलू सनेहु जानत रावरो
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है
एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली
इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं तुलसीदासजी कहते हैं - भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल लौट चलीं
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे
गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे
Monday, March 22, 2010
गुरुदेव दया करदो......
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो.....
तुम्हारी सरन मै जो कोई आया पर हुवा सो एक ही पल मै
इस दर पे हम भी आये है इस दरपे गुजारा करने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो.....
सीर पर छाया घोर अँधेरा सुजात नहीं राह कोई
ये नयन मेरे और ज्योत तरी इन नैनों को भी बहने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो.....
चाहे तीर दो चाहे डूबा दो मर भी गिये तो देगे दुहाई ,
डूब भी गए तो देगे दुहाई
ये नव मरी और हाट तेरे मुझे भाव सागर से तारने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो......
तुम्हारी सरन मै जोभी आया पर हुवा सो एक ही पल मै
इस दर पे हम भी आये है इस दर पे गुजारा करने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो......
Sunday, March 21, 2010
Koshish
Sahara
Sukh
Hai Gurudev
Thursday, March 18, 2010
है नाथ अब तो
Sukh Dukh
kitene hi logo ko sukh dukh aata hai par voh aapko farak nahi padata kyoki aap usme jude huwe nahi ho , jab aap judte ho aur use apna manate ho to voh bat aapko sukh aur dukh deti hai par jab tak aap unse nirlep aur nirvikar ho tab voh bat aapko sukh aur dukh nahi deti , karta banana hi dukh ka karna hai aur darshta banana hi sukh ka karan hai bas darshta bane raho aur param ananad aur param sukh ke marg ki aur chal pado jiwan jine ki chah bad jayegi param aanad panae ki rah mil jayegi