Sunday, September 5, 2010

हरी ॐ गुरु कृपा ही केवलम सिस्यस्य परम मंगलम
हरी ॐ गुरु कृपा ही केवलम सिस्यस्य परम मंगलम

Monday, June 28, 2010

'उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।' (गीताः ४.३४)

मात पिता गुरू प्रभु चरणों में...............

मात पिता गुरू चरणों में प्रणवत बारम्बार।हम पर किया बड़ा उपकार।
हम पर किया बड़ा उपकार। ।।टेक।।

(1) माता ने जो कष्ट उठाया, वह ऋण कभी न जाए चुकाया।
अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, ममता की दी शीतल छाया।।
जिनकी गोदी में पलकर हम कहलाते होशियार,
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(2) पिता ने हमको योग्य बनाया, कमा कमा कर अन्न खिलाया।
पढ़ा लिखा गुणवान बनाया, जीवन पथ पर चलना सिखाया।।
जोड़-जोड़ अपनी संपत्ति का बना दिया हकदार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(3) तत्त्वज्ञान गुरू ने दरशाया, अंधकार सब दूर हटाया।
हृदय में भक्तिदीप जला कर, हरि दर्शन का मार्ग बताया।
बिनु स्वारथ ही कृपा करें वे, कितने बड़े हैं उदार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।

(4) प्रभु किरपा से नर तन पाया, संत मिलन का साज सजाया।
बल, बुद्धि और विद्या देकर सब जीवों में श्रेष्ठ बनाया।
जो भी इनकी शरण में आता, कर देते उद्धार।
हम पर किया..... मात पिता...... ।।टेक।।
ये जितने बुरे क्षेम हैं वह अपनेमें तो आवेंगे नहीं और भगवान्‌ की लीलामें दूसरे में आवे तो समझे अब भगवान्‌ क्रोध के रुप में आये हैं।अब भगवान्‌ इस रोग के रुपमें आये हैं।इस प्रकार इन सारे भावों में भी भगवान्‌ का दर्शन करें।

हे नाथ ! हृदयमें आपकी लगन लग जाय। दिल में आप धँस जाओ। आपकी रुपमाधुरी आँखोंमें समा जाय, आपके लिये उत्कट अनुराग हो जाय। बस,बस इतना ही और कुछ नहीं चाहिये।
कसौटी कसके देखो कि हम भगवान्‌ का कितना आदर करते हैं,तब पता लगेगा । भगवन्नाम भूल गये तो कोई बात नहीं है,पर पाँच रुपये भी कहीं भूल गये तो खटकेगा।

प्रतिष्ठा,कीर्ति,मान,बड़ाई हमारे लिये कलंक हैं।उनका घोर विरोध करना चाहिये ।हम खुद भी विरोध करें औरोंको भी विरोध करनेके लिये कहें और यह बात लोगोंकी दृष्टिमें ला देवें कि यह बहुत बुरी चीज है।

Monday, June 21, 2010

""तू गुलाब होकर महेक,तुजे जमाना जाने...........""

सबके अपने अपने हाथ में है उस रब का दिया हुआ अमूल्य जीवन......
उसे कैसा बनाना है ,उसे कैसे उन्नत करना है ,वो सब अपने अपने हिसाब से सभी कोई जनता है....
पर वैसा जीवन बनाने के लिए प्रयास नहीं किये जाते है........
प्रसन्नता ,आनंद ,माधुर्यता ,पवित्रता और खुशिया सबके जीवन की मांग है.......
बस... एक गुलाब की नाई अपने जीवन को बनाने का प्रयत्न किया जाये......
गुलाब को देखिये,उसका स्वभाव है की सदैव चारो और खुशबू फैलाना .......
वो जहा जाता है वह जगह को पूर्ण सुवासित बना देता है.......
हम सबका जीवन भी हमें चाहिए की उसी के अनुरूप बनाते जाये......
न किसी से राग,न किसी से द्वेष,न ही किसी के लिए बदले की भावना .......
सबका हित सोचे.....सदा मंगलमय चिंतन करे..........
गुलाब के फूल को सुगर पे रखो......गुड पर रखो.....
किसी भी वस्तु पर रख दो.... फिर उसकी खुशबू देखे......
कोई फर्क नहीं पड़ेगा....उसमे से गुलाब की ही सुवास आयेगी.....
ठीक उसू तरह गृहस्थ धर्म में रहते हुए रोज-रोज अनेक और भिन्न -भिन्न भांति के लोगो से मिलना पड़ता है, रिश्ता निभाना पड़ता है........
पर समाज में भी गुलाब की तरह जिए.......
किसी की क्या मजाल की तुम्हारी आत्मा मस्ती की जड़े हिला सके? अपने अपने बाल- बच्चो को भी ऐसे तो मजबूत बनाये....
की २०-२५ के ग्रुप में आपका बच्चा खड़ा हो तो भी वो अलग तैर जाना चाहिए......
उसकी एक अलग पहेचान होनी चाहिए........ बस......
उसे ऐसा बनाये की वो आगे चलकर एक गुलाब की नाई चारो दिशाओ में खुशबू ही खुशबू फैलाये...... और अपने माता-पिता और गुरुजनों का नाम रोशन करे...........
""तू गुलाब होकर महेक,तुजे जमाना जाने..........."
" हरी ॐ ...नारायण हरी......ॐ नमो भगवते वासुदेवाय..........

सतशिष्य ......................

भगवान बुद्ध ने एक बार घोषणा की किः "अब महानिर्वाण का समय नजदीक आ रहा है। धर्मसंघ के जो सेनापति हैं,कोषाध्यक्ष हैं, प्रचार मंत्री हैं, व्यवस्थापक हैं तथा अन्य सब भिक्षुक बैठे हैं उन सबमें से जो मेरा पट्टशिष्य होना चाहता हो, जिसको मैं अपना विशेष शिष्य घोषित कर सकूँ ऐसा व्यक्ति उठे और आगे आ जाये।"

बुद्ध का विशेष शिष्य होने के लिए कौन इन्कार करे ? सबके मन में हुआ कि भगवान का विशेष शिष्य बनने से विशेष मान मिलेगा, विशेष पद मिलेगा, विशेष वस्त्र और भिक्षा मिलेगी। एक होते हैं मेवाभगत और दूसरे होते हैं सेवाभगत। गुरू का मान हो, यश हो, चारों और बोलबाला हो तब तो गुरू के चेले बहुत होंगे। जब गुरू के ऊपर कीचड़ उछाला जायेगा, कठिन समय आयेगा तब मेवाभगत पलायन हो जाएँगे, सेवाभगत ही टिकेंगे।

बुद्ध के सामने सब मेवाभगत सत्शिष्य होने के लिये अपनी ऊँगली एक के बादएक उठाने लगे। बुद्ध सबको इन्कार करते गये। उनको अपना विशेष उत्तराधिकारी होने के लिए कोई योग्य नहीं जान पड़ा। प्रचारमंत्री खड़ा हुआ। बुद्ध ने इशारे से मना किया। कोषाध्यक्ष खड़ा हुआ। बुद्ध राजी नहीं हुए। सबकी बारी आ गई फिर भी आनन्द नहीं उठा। अन्य भिक्षुओं ने घुस-पुस करके समझाया कि भगवान के संतोष के खातिर तुम उम्मीदवार हो जाओ मगर आनन्द खामोश रहा। आखिर बुद्ध बोल उठेः "आनन्द क्यों नहीं उठता है ?" आनन्द बोलाः "मैं आपके चरणों में आऊँ तो जरूर, आपके कृपापात्र के रूप में तिलक तो करवा लूँ लेकिन मैं आपसे चार वरदान चाहता हूँ।

बाद में आपका सत्शिष्य बन पाऊँगा।" "वे चार वरदान कौन-से हैं ?" बुद्ध ने पूछा। "आपको जो बढ़िया भोजन मिले, भिक्षा ग्रहण करने के लिए निमंत्रण मिले उसमें मेरा प्रवेश न हो। आपका जो बढ़िया विशेष आवास हो उसमें मेरा निवास न हो। आपको जो भेंट-पूजा और आदर-मान मिले उस समय मैं वहाँ से दूर रहूँ।आपकी जहाँ पूजा-प्रतिष्ठा होती हो वहाँ मुझे आपके सत्शिष्य के रूप मेघोषित न किया जाए। इस ढंग से रहने की आज्ञा हो तो मैं सदा के लिए आपके चरणों में अर्पित हूँ।" आज भी लोग आनन्द को आदर से याद करते हैं

आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले.....................

जैसे, कोई सोचता है कि तीन घण्टे का समय है। चलो, सिनेमा देख लें। सिनेमा में दूसरी सिनेमा के एवं दूसरी कई चीजों के विज्ञापन भी दिखाये जाते हैं। इससे एक सिनेमा देखते-देखते दूसरी सिनेमा देखने की एवं दूसरी चीजें खरीदने की वासना जाग उठती है। वासनाओं का अन्त नहीं होता। वासनाओं का अन्त नहीं होता। इसलिए यह जीव बेचारा परमात्मा तक नहीं पहुँच पाता। वासना से ग्रस्त मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती। मति परमात्मा में प्रतिष्ठित नहीं होती है तो जीव जीने की और भोगने की वासना से आक्रान्त रहता है।

जो चैतन्य जीने और भोगने की इच्छा से आक्रान्त रहता है उसी चैतन्य का नाम जीव पड़ गया। वास्तव में जीव जैसी कोई ठोस चीज नहीं।

जीव ने अच्छे कर्म किये, सात्त्विक कर्म किये, भोग भोगे तो सही लेकिन ईमानदारी से, त्याग से, सेवाभाव से, भक्ति से अच्छे संस्कार भी सर्जित किये, परलोक में भी सुखी होने के लिए दान-पुण्य किये, सेवाकार्य किये तो उसकी मति में अच्छे सात्त्विक सुख भोगने की इच्छा आयेगी। वह जब प्राण त्याग करेगा तब सत्त्वगुण की प्रधानता रहेगी और वह स्वर्ग में जाएगा।

जीव को अगर हल्के सुख भोगने की इच्छा रही तो वह नीचे के केन्द्रों में ही उलझा रहेगा। मानो उसे काम भोगने की इच्छा रही तो मरने के बाद उसे स्वर्ग में जाने की जरूरत नहीं, मनुष्य होने की भी जरूरत नहीं। उसकी शिश्नेन्द्रिय को भोग भोगने की अधिक-से-अधिक छूट मिल जाय ऐसी योनि में प्रकृति उसे भेज देगी। शूकर, कूकर, कबूतर का शरीर दे देगी। उस योनि में एकादशी, व्रत, नियम, बच्चों को पढ़ाने की, शादी कराने की जिम्मेदारी आदि कुछ बन्धन नहीं रहेंगे। जीव वहाँ अपने को शिश्नेन्द्रिय के भोग में खपा देगा।

इस प्रकार जिस इन्द्रिय का अधिक आकर्षण होता है उस इन्द्रिय को अधिक भोग मिल सके ऐसे तन में प्रकृति भेज देती है। क्योंकि तुम्हारी मति उस सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म से स्फुरी थी इसलिए उस मति में सत्य संकल्प की शक्ति रहती है। वह जैसी इच्छा करती है, देर सवेर वह काम होकर रहता है।

इसलिए हमें सावधान रहना चाहिए कि हम जो संकल्प करें, मन-इन्द्रियों की बातों पर जो निर्णय दें वह सदगुरू, शास्त्र और अपने विवेक से नाप-तौलकर देना चाहिए। विवेक विचार से परिशुद्ध होकर इच्छा को पुष्टि देने या न देने का निर्णय करना चाहिए।

इच्छा काटने की कला आ जाएगी तो मन निर्वासनिक बनने लगेगा। मन निर्वासनिक होगा तो बुद्धि निश्चिन्त तत्त्व परमात्मा में टिकेगी। मन में अगर हल्की वासना होगी तो हल्का जीवन, ऊँची वासना होगी तो ऊँचे लोक-लोकान्तर का जीवन और मिश्रित वासना होगी तो पुण्य-पाप की खिचड़ी खाने के लिए मनुष्य शरीर मिलेगा। सत्संग और तप करके आत्मा-परमात्मा विषयक ज्ञान पा ले तो सबसे ऊँचा जीवन बन जाए। प्रारंभ में यह कार्य थोड़ा कठिन लग सकता है लेकिन एक बार आत्मा-परमात्मा का ज्ञान पा ले तो मति को, मन को, इन्द्रियों को जो शान्ति, आनन्द और रस मिलता है वह रस, शान्ति और आनन्द इहलोक में तो क्या, स्वर्गलोक में और ब्रह्मलोक में भी नहीं मिलते। ब्रह्मलोक में वह सुख नहीं जो ब्रह्म परमात्मा के साक्षात्कार में है।
जब तक आप अपने अंतःकरण के अन्धकार को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होंगेतब तक तीन सौ तैंतीस करोड़ कृष्ण अवतार ले लें फिर भी आपको परम लाभ नहींहोगा
शरीर अन्दर के आत्मा का वस्त्र है वस्त्र को उसके पहनने वाले से अधिक प्यार मत करो
जिस क्षण आप सांसारिक पदार्थों में सुख की खोज करना छोड़ देंगे और स्वाधीनहो जायेंगे, अपने अन्दर की वास्तविकता का अनुभव करेंगे, उसी क्षण आपकोईश्वर के पास जाना नहीं पड़ेगा ईश्वर स्वयं आपके पास आयेंगे यही दैवीविधान है

Sunday, June 20, 2010

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं
जीवन में ऐसे कर्म किये जायें कि एक यज्ञ बन जाय। दिन में ऐसे कर्म करो कि रात को आराम से नींद आये। आठ मास में ऐसे कर्म करो कि वर्षा के चार मास निश्चिन्तता से जी सकें। जीवन में ऐसे कर्म करो कि जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात हो जाय।

Tuesday, June 15, 2010

जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग होता (कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता
सदा अंतर्मुख होकर रहो। अंतर्मुख होने से हृदय में जो वास्तविक आनंद है उसकी झलकें मिलती हैं। मनुष्य जन्म का उद्देश्य उसी आनंद को प्राप्त करना है। जिसने मनुष्य शरीर पाकर भी उसका अनुभव नहीं किया, उसका सब किया-कराया व्यर्थ हो जाता है।
अपने अन्दर के परमेश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास करो जनता एवं बहुमति को आप किसी प्रकार से संतुष्ट नहीं कर सकते जब आपके आत्मदेवता प्रसन्न होंगे तो जनता आपसे अवश्य संतुष्ट होगी
जो दसों दिशाओ और तीनों कालों में परिपूर्ण है, जो अनंत है, जो चैतन्य-स्वरूप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शांत और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्म-रूप परमात्मा को नमस्कार है
जैसे, पलाश के फूल में सुगंध नहीं होने से उसे कोई पूछता नही है, परंतु वह भी जब पान का संग करता है तो राजा के हाथ तक भी पहुँच जाता है। इसी प्रकार जो उन्नति करना चाहता हो उसे महापुरूषों का संग करना चाहिए।
यदि तू निज स्वरूप का प्रेमी बन जाये तो आजीविका की चिन्ता, रमणियों, श्रवण-मनन और शत्रुओं का दुखद स्मरण यह सब छूट जाये उदर-चिन्ता प्रिय चर्चा विरही को जैसे खले निज स्वरूप में निष्ठा हो तो ये सभी सहज टले
सयाने सज्जन अपने गुरू के चरणकमल के निरन्तर ध्यान रूपी रसपान से अपने जीवन को रसमय बनाते है और गुरू के ज्ञान रूपी तलवार को साथ में रखकर मोहमाया के बन्धनों को काट डालते हैं।
शरीर से वैराग्य होना प्रथम कोटि का वैराग्य है तथा अहंता ममता से ऊपर उठ जाना दूसरे प्रकार का वैराग्य है ।लोगों को घर से तो वैराग्य हो जाता है, परंतु शरीर से वैराग्य होना कठिन है। इससे भी कठिन है शरीर का अत्यन्त अभाव अनुभव करना। यह तो सद्गुरु की विशेष कृपा से किसी किसीको ही होता है/
वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ ।जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसको भी त्याग देना, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है।
अपने गुरू से ऐसी शिकायत नहीं करना कि आपके अधिक काम के कारण साधना के लिए समय नहीं बचता। नींद के तथा गपशप लगाने के समय में कटौती करो और कम खाओ। तो आपको साधना के लिए काफी समय मिलेगा। आचार्य की सेवा ही सर्वोच्च साधना है।

Wednesday, May 19, 2010

Jaise samudr me apane aap paani jaataa, aisaa gyaanwaan ke paas saare aanand, saare sukh apane aap chalaa jaataa.. gyaani jahaa jaataa wahaa se to aanand aur sukh ubharataa hai.. chandramaa me, sury me jo prakaash hai vo is aatm sattaa kaa hi hai..!
अतीत का शोक और भविष्य की चिंता क्यों करते हो?हे प्रिय !वर्तमान में साक्षी, तटस्थ और प्रसन्नात्मा होकर जीयो....

Monday, May 17, 2010

वह संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।बिन खेती के बाढ़ किस काम की।।
Jaise samudr me apane aap paani jaataa, aisaa gyaanwaan ke paas saare aanand, saare sukh apane aap chalaa jaataa.. gyaani jahaa jaataa wahaa se to aanand aur sukh ubharataa hai.. chandramaa me, sury me jo prakaash hai vo is aatm sattaa kaa hi hai..!
meri haisiyat hi kya thi, jo tum na sath hote, meri haisiyat hi kya thi, jo tum na sath hote, samta ke path tumne, adbhut diye sikhaye, tumne hi daya karke, bigde kaaj bahnaye

ગુરુ બાવની .....

ગુરુજી મારા દિન દયાળ, લેજો પ્રભુ સૌની સંભાળ ,
ભક્ત જનોના કરવા ઉદ્ધાર, ધર્યો મનુષ્ય દેહ અવતાર,
ગુરુજી તમારો મહિમા અપાર, ગુણ ગાતા નહિ આવે પાર,
વિનવું તમને વારંવાર, વંદુ તમને જુગડાધાર,
લીલા તમારી અપરંપાર,પલમાં કિધા કહીને નિહાલ,
પવિત્ર ભૂમિ સુંદર ધામ, ત્યાં કીધો ગુરુજી એ મુકામ,
ભક્ત હ્રિદય માં તમારું નામ, તમ ચારનો માં અડસઠ ધામ,
સમરું તમને સ્વાસેસ્વાસ, આવી હ્રીદયે કરજો વાસ,
ભક્ત જનોના કરવા કાજ, પ્રમે પધારો ગુરુજી આજ,
ભક્તિ ની એ બાંધી પાજ, ભક્તિ કરતાન જાયે લાજ,
દિવ્ય ચક્ષુ દિવ્ય જ્ઞાન, દેજો અમને ભક્તિ જ્ઞાન,
ખાધી ઠોકર જગની માંય, ત્યારે આવીયો ચારનો માંય,
મમ અવગુણ નો પાર નહિ, ભક્તિ ભાવ નું નામ નહિ,
પણ છો ગુરુજી આપ દયાળ, સરણે રાખો જણી બાળ,
દિવ્ય અનુપમ તેજ અપાર, ક્યાં પામું પ્રભુ તમારો પાળ,
સ્થાપો મુજને હ્રીદયા માંય, રાખો મુજને ચારનો માંય,
ધ્યાન ધારે કોઈ ભક્ત સુજાન, જ્ઞાન ભાનુ નો થશે ભાણ,
ભક્ત કહે છે રાખી આશ, ગુરુજી પૂરશે સૌની આશ,
દેહ દેવળ ના આતમ રામ, ભક્તો કરે છે પ્રમે પ્રણામ...
ભક્તો કરે છે પ્રમે પ્રણામ..., ભક્તો કરે છે પ્રમે પ્રણામ......

Friday, May 14, 2010

वह संगति जल जाय जिसमें कथा नहीं राम की।बिन खेती के बाढ़ किस काम की।।
संत श्री की आँखों में ऐसा दिव्य तेज जगमगाया करता है कि उनके अन्दर की गहरी अतल दिव्यता में डूब जाने की कामना करने वाला क्षणभर में ही उसमें डूब जाता है। मानो, उन आँखों में प्रेम और प्रकाश का असीम सागर हिलौरें ले रहा है।

Friday, May 7, 2010

दु:ख और चिन्ता, हताशा और परेशानी, असफलता और दरिद्रता भीतर की चीजें होती हैं, बाहर की नहीं । जब भीतर तुम अपने को असफल मानते हो तब बाहर तुम्हें असफलता दिखती है । भीतर से तुम दीन हीन मत होना । घबराहट पैदा करनेवाली परिस्थितियों के आगे भीतर से झुकना मत । ॐकार का सहारा लेना ।
ईश्वर के लिए जगत को छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन जगत के लिए ईश्वर को कभी मत छोड़ना। ॐ......ॐ........ॐ.......ईश्वर के लिए प्रतिष्ठा छोड़ना पड़े तो छोड़ देना लेकिन प्रतिष्ठा के लिए ईश्वर को मत छोड़ना।
मुझे वेद पुरान कुरान से क्या।मुझे प्रभु का पाठ पढ़ा दे कोई।।मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं।मुझे प्रभु के गीत सुना दे कोई।।
रागरहित हुए तो एक परमात्मा का साक्षात्कार हो गया, वे निश्चिन्त हो गये। फिर उनकी मृत्यु उनकी मृत्यु नहीं है, उनका जीना उनका जीना नहीं है। उनका हँसना उनका हँसना नहीं है। उनका रोना उनका रोना नहीं है। वे तो रोने से, हँसने से, जीने से, मरने से बहुत परे बैठे हैं।
जैसे समुद्र में अपने आप पानी जाता, ऐसा ज्ञानवान के पास सारे आनंद, सारे सुख अपने आप चला जाता.. ज्ञानी जहा जाता वहा से तो आनंद और सुख उभरता है.. चन्द्रमा में, सूर्य में जो प्रकाश है वो इस आत्म सत्ता का ही है..!

Sunday, May 2, 2010

'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात... पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !See More
तुम कब तक बाहर के सहारे लेते रहोगे ? एक ही समर्थ का सहारा ले लो। वह परम समर्थ परमात्मा है। उससे प्रीति करने लग जाओ। उस पर तुम अपने जीवन की बागडोर छोड़ दो। तुम निश्चिन्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा अदभुत काम होने लगेंगे परन्तु राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने देगा। जब राग तुम्हें निश्चिन्त नहीं होने दे तब सोचोः
:जैसे किसी सेठ याबड़े साहब से मिलने जाने परअच्छे कपड़े पहनकरजाना पड़ता है,वैसे ही बड़े-में-बड़ा जोपरमात्मा है, उससे मिलने केलिए अंतःकरण इच्छा, वासना सेरहित, निर्मल होना चाहिए।
सब घट मेरा साँईया खाली घट न कोय।बलिहारी वा घट की जा घट परगट होय।।कबीरा कुँआ एक है पनिहारी अनेक।न्यारे न्यारे बर्तनों में पानी एक का एक।।कबीरा यह जग निर्धना धनवंता नहीं कोई।धनवंता तेहू जानिये जा को रामनाम धन होई।।

Thursday, April 22, 2010

धन में, वैभव में और बाह्य वस्तुओं में एक आदमी दूसरे आदमी की पूरी बराबरी नहीं कर सकता। जो रूप, लावण्य, पुत्र, परिवार, पत्नी आदि एक व्यक्ति को है वैसे का वैसा, उतना ही दूसरे को नहीं मिल सकता। लेकिन परमात्मा जो वशिष्ठजी , कबीर, जो रामकृष्ण, धन्ना जाट, जो राजा जनक को मिले हैं वे ही परमात्मा सब व्यक्ति को मिल सकते हैं। शर्त यह है कि परमात्मा को पाने की इच्छा तीव्र होनी चाहिए।

Tuesday, April 20, 2010

यह जीव जब अपने शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यस्वरूप को वरना चाहता है तो वह प्रेम में चड़ता हैजीव किसी हाड-मांस के पति या पतनी को वरकर विकारी सुख भोगना चाहता है तब प्रेम में पड़ता हैशरीर के द्वारा जब सुख लेने की लालच होती है तो प्रेम में पड़ता है और अंतर्मुख होकर जब परम सुख में गोता मारने की इच्छा होती है तब प्रेम में चड़ता है प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकताप्रेम में जो पड़े,वह संसार है..प्रेम में जो चड़े,वह साक्षात्कार है

कोई प्रेम में पड़ता है तो कोई प्रेम में चड़ता है प्रेम में पड़ना एक बात है लेकिन प्रेम में चड़ना तो कोई निराली ही बात है

वे सत्पुरूष क्यों हैं ? कुदरत जिसकी सत्ता से चलती है उस सत्य में वे टिके हैं इसलिए सत्पुरूष हैं। हम लोग साधारण क्यों हैं ? हम लोग परिवर्तनशील, नश्वर, साधारण चीजों में उलझे हुए हैं इसलिए साधारण हैं।

संतोंके दर्शन,स्पर्श,उपदेश-श्रवण और चरणधूलिके सिर चढ़ानेकी बात तो दूर रही,जो कभी अपने मनसे संतोंका चिन्तन भी कर लेता है,वही शुद्धान्त:करण होकर भगव्तप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।

मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।
जैसे पृथ्वी में रस है। उसमें जिस प्रकार के बीज बो दो उसी प्रकार के अंकुर, फल-फूल निकल आते हैं। उसी प्रकार वह चैतन्य राम रोम-रोम में बस रहा है। उसके प्रति जैसा भाव करके चिन्तन, स्मरण होता है वैसा प्रतिभाव अपने आप मिलता है।
वह रोम-रोम में बसा है इसलिए उसका नाम राम है। उसका चिन्तन करने से वह ताप, पाप, संताप और थकान को हर लेता है इसलिए उसका नाम हरि है। सर्वत्र वह खुद ही खुद है इसलिए उनका नाम खुदा है। वह कल्याणस्वरूप है इसलिए उसका नाम शिव है।
जो तुम्हारे दिल को चेतना देकर धड़कन दिलाता है, तुम्हारी आँखों को निहारने की शक्ति देता है, तुम्हारे कानों को सुनने की सत्ता देता है, तुम्हारी नासिका को सूँघने की सत्ता देता है और मन को संकल्प-विकल्प करने की स्फुरणा देता है उसे भरपूर स्नेह करो।

तुम्हारी 'मैं....मैं...' जहाँ से स्फुरित होकर आ रही है उस उदगम स्थान को नहीं भी जानते हो फिर भी उसे धन्यवाद देते हुए स्नेह करो। ऐसा करने से तुम्हारी संवित् वहीं पहुँचेगी जहाँ योगियों की संवित् पहुँचती है, जहाँ भक्तों की भाव संवित विश्रान्ति पाती है, तपस्वियों का तप जहाँ फलता है, ध्यानियों का ध्यान जहाँ से सिद्ध होता है और कर्मयोगियों को कर्म करने की सत्ता जहाँ से मिलती है।

Monday, April 19, 2010

शरीर संसार के लिए है। एकान्त अपने लिए है और प्रेम भगवान के लिए है। यह बात अगर समझ में आ जाय तो प्रेम से दिव्यता पैदा होगी, एकान्त से सामर्थ्य आयेगा और निष्कामता से बाह्य सफलताएँ तुम्हारे चरणों में रहेंगी।

धन से बेवकूफी नहीं मिटती है, सत्ता से बेवकूफी नहीं मिटती है, तपस्या से बेवकूफी नहीं मिटती है, व्रत रखने से बेवकूफी नहीं मिटती है। बेवकूफी मिटती है ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों के कृपा-प्रसाद से और सत्संग से, सत्शास्त्रों की रहमत से।

आनंद का ऐसा सागर मेरे पास था और मुझे पता न था अनंत प्रेम का दरिया मेरे भीतर लहरा रहा था और मैं भटक रहा था संसार के तुच्छ शुकों में! हे मेरे गुरुदेव! मुझे माफ़ कर देना

हिलनेवाली, मिटनेवाली कुर्सियों के लिए छटपटाना एक सामान्य बात है, जबकि परमात्म प्राप्ति के लिए छटपटाकर अचल आत्मदेव में स्थित होना निराली ही बात है।यह बुद्धिमानों का काम है।

चन्द्रमा में अमृत बरसाने की सत्ता जहाँ से आती है वही चैतन्य तुम्हारे दिल को और तुम्हारी नस-नाड़ियों को, तुम्हारी आँखों को और मन-बुद्धि को स्फुरणा और शक्ति देता है। जो चैतन्य सत्ता सूर्य में प्रकाश और प्रभाव भरती है, चन्द्रमा में चाँदनी भरती है वही चैतन्य सत्ता तुम्हारे हाड़-मांस के शरीर में भी चेतना, प्रेम और आनन्द की धारा बहाती है।

सरों की निंदा, बदनामी और चुगली न करे, औरों को नीचा न दिखाये। निंदा करना अधर्म बताया गया है, इसलिए दूसरों की और अपनी भी निंदा नहीं करना चाहिए। क्रूरताभारी बात न बोले। जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रूखाई से भरी हुई बात नरक में ले जाने वाली होती है, उसे कभी मुँह से न निकले।

Sunday, April 18, 2010

हे वत्स !उठ........... ऊपर उठ।प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा।दृढ़ निश्चय कर कि'अब अपना जीवनदिव्यता की तरफ लाऊँगा।

भगवान में इतना राग करो, उस शाश्वत चैतन्य में इतना राग करो कि नश्वर का राग स्मरण में भी न आये। शाश्वत के रस में इतना सराबोर हो जाओ, राम के रस में इतना तन्मय हो जाओ कि कामनाओं का दहकता हुआ, चिंगारियाँ फेंकता हुआ काम का दुःखद बड़वानल हमारे चित्त को न तपा सके, न सता सके।

आप के चित्त मे केवल संसार की चिंता नही , उस चैत्यन्य का चिंतन भी है..- आप के अन्दर केवल काम, क्रोध, मोह , अंहकार कि गंदगी नही प्रभुप्रिती का सुवास भी छुपा है..- आप के अन्दर केवल शोक , विषाद , दुर्बलता की पराधीनता ही नही.. आप के अन्दर आनंद और माधुर्य बिखेरने की स्वाधीनता भी है… bapuji

संगी साथी चल गए सारे, कोई ना दिज्यो साथ lकहे तुलसी साथ न छोडे तेरा एक रघुनाथ.. ll..संगी साथी सब छुट जाते , साथ नही आते…मरने के बाद भी साथ नही छोड़ते वो है आप के रघुनाथ …आप का आत्मा…

Saturday, April 17, 2010

यह आत्माकिसी काल मेंभी न तोजन्मता है औरन मरता ही हैतथा न यहउत्पन्न होकरफिर होने वालाही है क्योंकियह अजन्मा,नित्य, सनातनऔर पुरातन है शरीर केमारे जाने परभी यह नहींमारा जाता है
गुरु की सीख माने वह शिष्य है।अपने मन में जो आता है, वह तो अज्ञानी, पामर, कुत्ता, गधा भी युगों से करता आया है। आप तो गुरुमुख बनिये,शिष्य बनिये।
वेद को सागर की तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को मेघ की उपमा दी गई है। सागर के पानी से चाय नहीं बन सकती, खिचड़ी नहीं पक सकती, दवाईयों में वह काम नहीं आता, उसे पी नहीं सकते। वही सागर का खास पानी सूर्य की किरणों से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठ जाता है, मेघ बनकर बरसता है तो वह पानी मधुर बन जाता है। फिर वह सब कामों मे...ं आता है। स्वाती नक्षत्र में सीप में पड़कर मोती बन जाता है।See More
ऐसे ही अपौरूषय तत्त्व में ठहरे हुए ब्रह्मवेत्ता जब शास्त्रों के वचन बोलते हैं तो उनकी अमृतवाणी हमारे जीवन में जीवन-शक्ति का विकास करके जीवनदाता के करीब ले जाती है। जीवनदाता से मुलाकात कराने की क्षमता दे देती है। इसीलिए कबीर जी ने कहाः सुख देवे दुःख को हरे करे पाप का अन्त ।कह कबीर वे कब मिलें परम स्नेही सन्त ।। :
चाहे हरा दो बाजी,चाहे जीता दो बाजि,तुम हो जिस्न्मे राजी हम भी उसी मै राजी,हें हृद्यास्वर हें प्रानेस्वार हें सर्वेश्वर हें परमेश्वर,विनती यह स्वीकार करो भूल दिखा कर,उसे मिटा कर अपना प्रेम प्रदान करो,
कितने भी फैशन बदलो, कितने भी मकान बदलो, कितने भी नियम बदलो लेकिन दुःखों का अंत होने वाला नहीं। दुःखों का अंत होता है बुद्धि को बदलने से। जो बुद्धि शरीर को मैं मानती है और संसार में सुख ढूँढती है, उसी बुद्धि को परमात्मा को मेरा मानने में और परमात्म-सुख लेने में लगाओ तो आनंद-ही-आनंद है,माधुर्य-ही-माधुर्य है...
ईर्ष्या, घृणा, तिरस्कार, भय, कुशंका आदि कुभावों से जीवन-शक्ति क्षीण होती है। दिव्य प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, हिम्मत और कृतज्ञता जैसे भावों से जीवन-शक्ति पुष्ट होती है। किसी प्रश्न के उत्तर में हाँ कहने के लिए जैसे सिर को आगे पीछे हिलाते हैं वैसे सिर को हिलाने से जीवन-शक्ति का विकास होता है। नकारात्मक उत्तर में सिर को दायाँ, बायाँ घुमाते हैं वैसे सिर को घुमाने से जीवन शक्ति कम होती है।

कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खाइयो मॉस,

दो नैना मत खाइयो जिन्हें पिया मिलन की आस

मेरे भैया ! स्वतंत्रता का अर्थ उच्छ्रंखलता नहीं है। शहीदों ने खून की होली खेलकर आप लोगों को इसलिए आजादी दिलायी है कि आप बिना किसी कष्ट के अपना, समाज का तथा देश का कल्याण कर सकें। स्वतंत्रता का सदुपयोग करो तभी तुम तथा तुम्हारा देश स्वतंत्र रह पायेगा, अन्यथा मनमुखता के कारण अपने ओज-तेज को नष्ट करने वालों को कोई भी अपना गुलाम बना सकता है। by lilashah ji maharaj...

यह कौन सा उकदा है जो हो नही सकता l

तेरा जी न चाहे तो , हो नही सकता ll

छोटा सा कीडा पत्थर मे घर करे l

और इन्सान क्या , दिले दिलबर मे घर न करे

मनुष्य के पास ज्ञान के लिए एक मात्र साधन यह बुद्धि है! यदि यह बुद्धि विषय वासनाओं से मलिन हो जाए तो वह मनुष्य को दुःख सागर में डुबो देती है! और यदि यह बुद्धि आत्मानुरागिणी हो जाए तो यह ऋतम्भरा नाम वाली बनकर मनुष्य को संसार के दुस्तर महासागर से पार लगाने में अति सहायक हो जाती है!
आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, प्रेरक अवतार, अंतर्यामी अवतार, साक्षी अवतार..... ऐसे अनेक स्थानों पर अनेक बार भगवान के अवतार हुए हैं। एक अवतार अर्चना अवतार भी होता है। मूर्ति में भगवान की भावना करते हैं, पूजा की जाती है, वहाँ भगवान अपनी चेतना का अवतार प्रकट कर सकते हैं।
जैसा रोग , वैसा ही निदान ; और वैसी ही औषधि या अनुमान जो सदगुरू भव रोग के निवारण के लिए अपने शिष्य को देते हैं .गुरु जो स्वयं करतें हैं, उसका अनुसरण मत करो, लेकिन जो आज्ञा गुरु- मुख से निकले, आदरपूर्वक उसे व्यव्हार में लाओ और उसके अनुसार आचरण करो.मन को केवल उन्ही शब्दों पर केन्द्रित करो और नित्य उन्हीं का चिंतन करो.क्योंकि केवल वे ही तुम्हारे कल्याण का कारण होंगे. निरंतर इसका स्मरण रखना............ ॐ साईं राम

Thursday, April 15, 2010

इन्सान अनेकों बंधनों की बेडियों में बंधकर संसार में आता है ! जन्म से ही संघर्ष की शुरूआत हो जाती है ! लेकिन संघर्ष की घड़ी में स्वयं का साहस और प्रभु की प्रेरणा,अपना पुरूषार्थ और प्रभु की प्रारथना से ही सफ़लता का सवेरा प्राप्त होता है !
हजारो मनुष्यों में कोई विरला इश्वर के रास्ते चलता है .. हजारो इश्वर के रास्ते चलने वालो में से कोई विरले सिध्दि पाते है और वहा ही रुक जाते …. ऐसे हजारो में कोई विरला सत्य संकल्प से आगे बढ़ता है ..उस में से कोई विरला ब्रम्हज्ञानी बनाता है ..
मानव तो आते भी रोता है और जाते वक़्त भी रोता है जब रोने का वक़्त नहीं होता तब भी रोता है एक सदगुरु में ही वह ताकत है, जो जन्म-मरन के मूल अज्ञान को काटकर मनुष्य को रोने से बचा सकते हैं "वे ही गुरु हैं जो आसूदा-ऐ-मंजिल कर दें वर्ना रास्ता तो हर शख्श बता देता है" ऊँगली पकड़कर, कदम-से-कदम मिलाकर, अंधकारमय गलिओं से बाहर निकालकर लक्ष्य तक पहुँचानेवाले सदगुरु ही होते हैं

Wednesday, April 14, 2010

सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाओ और व्यवहार-काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ।
मैं निर्भय रहूँगा । मैं बेपरवाह रहूँगा जगत के सुख दु:ख में । मैं संसार की हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहूँगा, क्योंकि मैं आत्मा हूँ । ऐ मौत ! तू शरीरों को बिगाड़ सकती है, मेरा कुछ नहीं कर सकती । तू क्या डराती है मुझे ?
दो औषधियों का मेल आयुर्वेद का योग है। दो अंकों का मेल गणित का योग है।चित्तवृत्ति का निरोध यह पातंजलि का योग है परंतु सब परिस्थितियों में सम रहना भगवान श्रीकृष्ण की गीता का'समत्व योग' है।

Tuesday, April 13, 2010

अपने अन्दर से कभी कम होने मत देना प्रेम के भाव भाव को,शांति के स्वभाव को,ईश के प्रभाव को,श्रद्धा के सद्भाव को! बहुत जरुरी है परिवार के लिए शांति , समाज के लिए क्रांति , जीवन के लिए उन्नति, सफलता के लिए सम्मति!

"भविष्य जानने की कोशिश मत करो। भविष्य परमात्मा के हाथ में है, वर्तमान आप के हाथ में है। भूतकाल बीत गया, उस की कोई कीमत नहीं । वर्तमान को अच्छा बना रहे है तो भविष्य की नींव डाल रहे हैं ।"

शान्ति के समान कोई तप नहीं हे !संतोष से बढ्कर कोई सुख नहीं हे !तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं हे ! दया के समान कोई धर्म नहीं हे !सत्य जीवन हे और असत्य मृत्यु हे !घृणा करनी हे तो अपने दोषों से करो !लोभ करना हे तो प्रभू के स्मरण का करो !बैर करना हे तो अपने दुराचारों से करो !दूर रहना हे तो बुरे संग से रहो ! मोह करना हो तो परमात्मा से करो !

जो अपने लक्ष्य के प्रति पागल हो गया हो उसे ही प्रकाश का दर्शन होता हे !जो थोडा इधर थोडा उधर हाथ मारते हें वे कोइ लक्ष्य पूर्ण नहीं कर पाते ! वे कुछ क्षणों के लिये बडा जोश दिलाते हें ,किन्तु यह शीघ्र ठंडा हो जाता हे !
जिस मनुष्य ने भगवत्प्रेमी संतो के चरणों की धूलकभी सिर पर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है।वह हृदय नहीं, लोहा है,जो भगवान के मंगलमय नामों का श्रवण-कीर्तन करने पर भी पिघलकर उन्हीं की ओर बह नहीं जाता।
तुम निर्भयतापूर्वक अनुभव करो कि मैं आत्मा हूँ । मैं अपनेको ममता से बचाऊँगा । बेकार के नाते और रिश्तों में बहते हुए अपने जीवन को बचाऊँगा । पराई आशा से अपने चित्त को बचाऊँगा । आशाओं का दास नहीं लेकिन आशाओं का राम होकर रहूँगा ।

Sunday, April 11, 2010

हे नाथ! मानमें, बड़ाईमें, आदरमें, रुपयोंमें, भोगोंमें, संग्रहमें, सुखमें, आराममें हमारा मन स्वत: जाता है-तो यह तो है हमारी दशा! और इसपर भी जो सत्संग मिलता है,आपकी चर्चा मिलती है,आपकी कथा मिलती है तो यह आपकी ही कृपा है महाराज!
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी को दया का सागर कहें, तब भी उनकी अपरिमित दया का तिरस्कार ही होता है।जीवों पर उनकी जो दया है, वह कल्पनातीत है।
जबतक तुम यह सोचते रहोगे कि अमुक परिस्थिति आनेपर भगवान् का भजन करुँगा,तबतक भजन बनेगा ही नहीं, परिस्थिति की कल्पना बदलती रहेगी;अतएव तुम जिस परिस्थिति में हो,उसी में भजन आरम्भ कर दो।भजन होने लगनेपर परिस्थिति आप ही अनुकूल हो जायगी।
जिस समय अपने दोष का दर्षन हो जाय,समझ लो,तुम जैसा विचारशील कोई नहीं।और जिस समय पर-दोष-दर्षन हो,उस समय समझ लो कि हमारे जैसा बेसमझ कोई नहीं।बे-समझ की सबसे बड़ी पहिचान है कि जो पराये दोष का पण्डित हो।और भैया,विचारशील की कसौटी है,कि जो अपने दोष का ज्ञाता हो।
जो भजन,ध्यान आदि साधन करके मुक्ति पाते हैं वे परिश्रम करके पेट भरनेवालों के समान हैं। और जो भगवान् के देने पर भी मुक्तिको ग्रहण न करके सबका कल्याण होने के लिये भगवान् के गुण,प्रेम,तत्व,रहस्य और प्रभावयुक्त भगवान् के सिद्दान्तका संसारमें प्रचार करते हैं,वे सबको खिलाकर भोजन करनेवालों के समान हैं।
बच्चे का माँसे जितना प्रेम होता है,उससे भी बहुत अधिक प्रेम माँका बच्चेसे होता है।परन्तु बच्चा माँके प्रेमको पहचानता नहीं।अगर बच्चा माँके प्रेम को पहचान ले तो वह माँ की गोदी में रो ही नहीं सकता! ऐसे ही भगवान् का जीव से कम प्रेम नहीं है।काकभुशुण्डिजी भगवान् के साथ खेलते-खेलते जब उनके पास आते हैं,तब भगवान् हँसने लगते हैं ...और जब उनसे दूर चले जाते हैं,तब भगवान् रोने लगते हैं।(जिन खोजा तिन पाइया-पेज-५०)
हे नाथ! यदि तुम स्वयं ही न आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊँ? कौन लाकर देगा मुझे तुम्हारा प्रतीक? मैं बालिका हूँ। मेरी बात कौन सुनेगा? मेरी शक्ति कितनी? तुम न आओ तो मैं क्या कर सकूँगी?मुझे बताओ मैं क्या करुँ,क्या करुँ? क्यों तुम मुझे इतने अच्छे लगते हो?क्यों? क्यों?........क्यों तुम इतने अच्छे लगते हो?
जो भजन,ध्यान आदि साधन करके मुक्ति पाते हैं वे परिश्रम करके पेट भरनेवालों के समान हैं। और जो भगवान् के देने पर भी मुक्तिको ग्रहण न करके सबका कल्याण होने के लिये भगवान् के गुण,प्रेम,तत्व,रहस्य और प्रभावयुक्त भगवान् के सिद्दान्तका संसारमें प्रचार करते हैं,वे सबको खिलाकर भोजन करनेवालों के समान हैं।
"भविष्य जानने की कोशिश मत करो। भविष्य परमात्मा के हाथ में है, वर्तमान आप के हाथ में है। भूतकाल बीत गया, उस की कोई कीमत नहीं । वर्तमान को अच्छा बना रहे है तो भविष्य की नींव डाल रहे हैं ।"
ऐ पागल इन्सान ! ऐ माया के खिलौने ! सदियों से माया तुझे नचाती आयी है । अगर तू ईश्वर के लिए न नाचा, परमात्मा के लिए न नाचा तो माया तेरे को नचाती रहेगी । तू प्रभुप्राप्ति के लिए न नाचा तो माया तुझे न जाने कैसी कैसी योनियों में नचायेगी !

Wednesday, April 7, 2010

जैसे कूड़े-कचरे के स्थान पर बैठोगे तो लोग और कूड़ा-कचरा आपके ऊपर डालेंगे । फूलों के ढेर के पास बैठोगे तो सुगन्ध पाओगे । ऐसे ही देहाध्यास, अहंकार के कूड़े कचरे पर बैठोगे तो मान-अपमान, निन्दा स्तुति, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व आप पर प्रभाव डालते रहेंगे और भगवच्चिन्तन, भगवत्स्मरण, ब्रह्मभाव के विचारों में रहोगे तो शांति, अनुपम लाभ और दिव्य आनन्द पाओगे ।
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, जिस समय समाज में खिंचाव, तनाव व विषयों के भोग का आकर्षण जीव को अपनी महिमा से गिराते हैं, उस समय प्रेमाभक्ति का दान करने वाले तथा जीवन में कदम कदम पर आनंद बिखेरने वाले महापुरूष का अवतार होता है।
बुराई को बुराई से नहीं बल्कि अच्छाई द्वारा, हिंसा को अंहिसा द्वारा और घृणा को प्रेम से खत्म किया जा सकता है।’अपने शत्रुओं से प्यार करो, ईश्वर में विश्वास करो, भविष्य की चिंता मत करो और दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसे कि तुम उनसे अपेक्षा रखते हो।

गुरू

जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने से पुत्र या पौत्र खुश होता है इसी प्रकार गुरू की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है। गुरू, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं मानना। गुरू ही ईश्वर हैं। उनको केवल मानव ही नहीं मानना। जिस स्थान में गुरू निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास हैं। जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है। उनके पावन चरणों का पानी गंगाजी स्वयं हैं। उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्त्ता ब्रह्मा स्वयं ही हैं।

गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।

गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं

गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।

जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।
यदि मेरा मन व्याकुल है, हमेशा क्रोध, बैर, दुर्भावना और द्वेष से भरा रहता है, तो मैं विश्व को शांति कैसे प्रदान कर सकता हूँ? ऐसा कर ही नहीं सकता क्योंकि स्वयं मुझमें शांति नहीं है। इसलिए संतों और प्रबुद्धों ने कहा- 'शांति अपने भीतर खोजो।' स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है।
Priti ki meri ab tum hi badana , tum hi prabhu ho mera ashiyana , kitno ko bhav se tumne hai tara , tumko na bhule ho Satgurudeva , Tera hi sahara hai he Satgurudeva , tumne sikhaya jis rah pe chalna , Bhule na kabhi tujko he Gurudeva bas tera hi sahara hai O satguru Deva

मेरे गुरूजी

मेरे गुरूजी तुमसे आरम्भ होती मेरी सुबह
लेकिन मुझे ऐसा क्यों लगता कि
तुम बिन मेरा जीवन अधूरा हैं
तुम्हारे अतिरिक्त नही कर पाता
मैं और कुछ भी चिंतन
यह स्मरण ही
अब मेरा जीवन हैं

परमात्मा

परमदेव परमात्मा कहीं आकाश में, किसी जंगल, गुफा या मंदिर-मस्जिद-चर्च में नहीं बैठा है। वह चैतन्यदेव आपके हृदय में ही स्थित है। वह कहीं को नहीं गया है कि उसे खोजने जाना पड़े। केवल उसको जान लेना है। परमात्मा को जानने के लिए किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन हीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बन कर करो। देवो भूत्वा यजेद् देवम्। जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनंदस्वरूप है, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनंद, शांति तथा पूर्ण आत्मबल के साथ उनकी उपासना करो कि 'मैं जैसा-तैसा भी हूँ भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं और वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं तथा दयालु भी हैं तो मुझे भय किस बात का !' ऐसा करके निश्चिंत नारायण में विश्रांति पाते जाओ।

बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। 'आत्मा सच्चा है, 'मैं' जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा 'मैं' सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ' – इस तरह अपने 'मैं' स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि 'मैं चैतन्य आत्मा हूँ।' इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।
'नाम के समान न ज्ञान है, न व्रत है, न ध्यान है, न फल है, न दान है, न शम है, न पुण्य है और न कोई आश्रय है। नाम ही परम मुक्ति है, नाम ही परम गति है, नाम ही परम शांति है, नाम ही परम निष्ठा है, नाम ही परम भक्ति है, नाम ही परम बुद्धि है, नाम ही परम प्रीति है, नाम ही परम स्मृति है।'
संसार में हर वस्तु का मूल्य चुकाना होता हे ! बिना ताप किये कष्ट सहे आप अधिकार, पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, सम्पति, शक्ति प्राप्त नहीं कर सकते, अत: आपको तपस्वी होना चाहिए आलसी, आराम पसंद नहीं! जीवन के समस्त सुख आपके कठोर पर्रिश्रम के नीचे दबे पड़े हैं, इसे हमेशा याद रखिए!

Thursday, April 1, 2010

कहाँ है वह तलवार जो मुझे मार सके ? कहाँ है वह शस्त्र जो मुझे घायल कर सके ? कहाँ है वह विपत्ति जो मेरी प्रसन्नता को बिगाड़ सके ? कहाँ है वह दुख जो मेरे सुख में विघ्न ड़ाल सके ? मेरे सब भय भाग गये सब संशय कट गये मेरा विजय-प्राप्ति का दिन आ पहुँचा है कोई संसारिक तरंग मेरे निश्छल चित्त को आंदोलित नहीं कर सकती
zindgi se jo lamha mile use chura lo, zindagi pyar se apni saja lo, zindgi yu hi gujar jayegi aaram se bas kabhi khud hanso kabhi rote hue ko hasa do

dil ek mandir

bas dil ko to mandir banana hai aur usme murat sajani hai apne pratam ki voh pritam jo kabhi juda nahi hota , kabhi nahi bichadta , kabhi hamse alag nahi hota , bhichadta hai yah sansar , bhichadti hai yah sansari vastue jo kabhi hamari nahi thi par galti se ham apni samaj bethate hai , jinke liye mare mare firte hai , rat din rote rahate hai voh sab to bichad jayega par jo kabhi nahi bhichdega , kabhi hamese juda nahi hoga use kab ham prit karenge , kab dil me mandir me use sajayenge ,kab tak bahar gumte rahenge , kyo nahi ham dil ke mandir me dubate ,kyo hamari mati mari gayi hai , kab tak sansare ke bandanome dubate rahenge , kab tak sabko kush karte phirte rahenege , kayo nahi ham apne atma deva ko kush karte , kyo nahi ham unke liye apni prit ki dori ko kaste , kab tak ............................................................................................... samay ka panchi udta ja raha hai , har din chutta ja raha hai , bas kahi der na ho jaye
जीवन में आप जो कुछ करते हो उसका प्रभाव आपके अंतःकरण पर पड़ता है। कोई भी कर्म करते समय उसके प्रभाव को, अपने जीवन पर होने वाले उसके परिणाम को सूक्ष्मता से निहारना चाहिए । ऐसी सावधानी से हम अपने मन की कुचाल को नियंत्रित कर सकेंगे, इन्द्रियों के स्वछन्द आवेगों को निरुद्ध कर सकेंगे, बुद्धि को सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर सकेंगे
Karni hai khuda se ek guzarish ke Teri Dosti ke siva koi bandgi na mile.. Har janam mein mile dost tere jaisa Ya phir kabhi zindgi na mile
Takdir ne khel se nirash nahi hote zindgi me kabhi udas nahi hote hatho ki lakiro pe yakin mat kr takdir to unki b hoti h jinke hath nahi hote

Realisation of God

A Blessing
The man whispered,
"God, speak to me"
and a meadowlark sang.
But, the man did not hear.

So the man yelled,
"God, speak to me"
and the thunder rolled across the sky.
But, the man did not listen

The man looked around and said,
"God let me see you."
And a star shined brightly.
But the man did not see.

And, the man shouted,
"God show me a miracle."
And, a life was born. But,
the man did not notice

So, the man cried out in despair,
"Touch me God, and let me know you are here."
Whereupon, God reached down and touched the man.
But, the man brushed the butterfly away ...
and walked on.

I found this to be a great reminder that God is always around us in the little and simple things that we take for granted. Don't miss out on a blessing because it isn't packaged the way that you expect.

Wednesday, March 31, 2010

संसार में हर वस्तु का मूल्य चुकाना होता हे ! बिना ताप किये कष्ट सहे आप अधिकार, पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, सम्पति, शक्ति प्राप्त नहीं कर सकते, अत: आपको तपस्वी होना चाहिए आलसी, आराम पसंद नहीं! जीवन के समस्त सुख आपके कठोर पर्रिश्रम के नीचे दबे पड़े हैं, इसे हमेशा याद रखिए!

मन

जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक दुःखों, से भरा पड़ा है । गर्भवास का दुःख, जन्मते समय का दुःख, बचपन का दुःख, बीमारी का दुःख, बुढ़ापे का दुःख तथा मृत्यु का दुःख आदि दुःखो की परम्परा चलती रहती है । गुरु नानक कहते हैं :

“नानक ! दुखिया सब संसार ।”

मन को प्रतिदिन इन सब दुःखो का स्मरण कराइए । मन को अस्पतालों के रोगीजन दिखाइए, शवयात्रा दिखाइए, स्मशान-भूमि में घू-घू जलती हुई चिताएँ दिखाइए । उसे कहें : “रे मेरे मन ! अब तो मान ले मेरे लाल ! एक दिन मिट्टी में मिल जाना है अथवा अग्नि में खाक हो जाना है । विषय-भोगों के पीछे दौड़ता है पागल ! ये भोग तो दूसरी योनियों में भी मिलते हैं । मनुष्य-जन्म इन क्षुद्र वस्तुओं के लिए नहीं है । यह तो अमूल्य अवसर है । मनुष्य-जन्म में ही पुरुषार्थ साध सकते हैं । यदि इसे बर्बाद कर देगा तो बारंबार ऎसी देह नहीं मिलेगी । इसलिए ईश्वर-भजन कर, ध्यान कर, सत्संग सुन और संतों की शरण में जा । तेरी जन्मों की भूख मिट जायेगी । क्षुद्र विषय-सुखों के पीछे भागने की आदत छूट जायेगी । तू आनंद के महासागर में ओतप्रोत होकर आनंदस्वरुप हो जायेगा ।

अरे मन ! तू ज्योतिस्वरुप है । अपना मूल पहचान । चौरासी लाख के चक्कर से छूटने का यह अवसर तुझे मिला है और तू मुठ्ठीभर चनों के लिए इसे नीलाम कर देता है, पागल ।

इस प्रकार मन को समझाने से मन स्वतः ही समर्पण कर देगा । तत्पश्चात् एक आज्ञाकरी व बुद्धिमान बच्चे के समान आपके बताये हुए सन्मार्ग पर खुशी-खुशी चलेगा ।

जिसने अपना मन जीत लिया, उसने समस्त जगत को जीत लिया । वह राजाओं का राजा है, सम्राट है, सम्राटों का भी सम्राट है ।
अनित्यानि शरीराणि बैभवो नैव शाश्वतः। नित्यं संन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।। हम जब जन्मे थे उस समय हमारी जो आयु थी वह आज नहीं है। हम जब यहाँ आये तब जो आयु थी वह अभी नहीं है और अभी जो है वह घर जाते तक उतनी ही नहीं रहेगी।शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है। शरीर हर रोज मृत्यु के नजदीक जा रहा है। अतः धर्म का संग्रह कर लेना चाहिए।

Tuesday, March 30, 2010

अन्तर्यामी राम की प्रसन्नता के लिए लोककार्य करो, लोगों से मिलो और विश्रांति लोकेश्वर में पाओ। अपने आत्मा-राम में आराम पाओ। कर्म सुख लेने के लिए नहीं, देने के लिए करो। कर्म मान लेने के लिए नहीं, देने के लिए करो तो तुम्हारा कर्म कर्मयोग, भक्तियोग हो जायेगा।
एकता जब आती हे , जब सब अपनी अपनी अकड छोड कर झुकना जान जाएं , नहीं तो विघटन रहता हे ! घमंड भरी आंखें, गलत गवही देने वाली जीभ , दुख देने वाले हाथ ,गलत रासते पर चलने वाले पैर भगवान को पसंद नहीं हें !

मन का मैल

जिसने मन के मैल का मार्जन कर लिया उसी ने वास्तव में सदा-सदा के लिए स्नान कर लिया और शरीर का स्नान कितनी भी अच्छी तरह से किया जाये किन्तु आठ दस गंटे में पुनह: स्नान की आवस्यकता प्रतीत होने लगती है सारी उम्र शरीर का सनसन किया जाये तो भी शरीर को शुद्ध नहीं किया जा सकता

क्या पानी में मल मल नहावे,

अरे मन का मैल उतर प्यारे

क्या मथुरा क्या कासी धावे,

घाट में गोटा मर प्यारे

योग, साधन, भक्ति, इश्वर स्मरण, सत्संग अदि उपचारों से जब भली- भांति मन का सनसन हो जाता है भीतर का अंधकार रूपी मैल हट जाता है तब जिव की सर्वकालिक शुद्धि होती है

Monday, March 29, 2010

जन्म मरण का कारण भगवान नहीं है। जन्म-मरण का कारण पत्नी, पुत्र, परिवार, मित्र या कोई व्यक्ति नहीं है। जन्म-मरण का कारण राग है। इसलिए हे नाथ ! अपने आप पर कृपा करो। रागरहित होने का यत्न करो।
पूरे मन से, सम्पूर्ण बुद्धि से भगवान से जुड़ जाओ । इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भगवान में ही लग जाय । एकमात्र भगवान ही रह जायें, अन्य सब गुम हो जाय । ऐसा कर सको तो जीवन सार्थक है । ऐसा नहीं होगा तो मानव जीवन केवल व्यर्थ ही नहीं गया अपित अनर्थ हो गया । अतः जब तक श्वास चल रहा है, शरीर स्वस्थ है तब तक सुगमता से इस साधन में लग जाओ ।
साधना चाह कोई कितनी भी ऊँची कर ले, भगवान राम, श्रीकृष्ण, शिव के साथ बातचीत कर ले,शिवलोक में शिवजी के गण या विष्णुलोक में जय-विजय की नाईं रहने को भी मिल जाय फिर भी साक्षात्कार के बिन यात्रा अधूरी रहती है।
सर्वसाधारण से यह नम्रतापूर्वक निवेदन किया जाता है कि यदि उचित समझा जाय तो प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन परमात्मा के और अपनेसे बड़े जितने लोग घर में हों,उन सबके चरणों में प्रणाम करे,हो सके तो बिछौने से उठते ही कर ले,नहीं तो स्नान-पूजादि के बाद करे।इस सूचना के मिलते ही जो लोग इसके अनुसार कार्य आरम्भ कर देंगे,उनकी बड़ी कृपा होगी।
जब कोई अच्छा संग मिल जाय,अच्छी बात मिल जाय,अच्छा भाव पैदा हो जाय,अचानक भगवान् याद आ जाय,तब समझना चाहिये कि यह भगवान् की विशेष कृपा हुई है,भगवान् ने मेरे को विशेषता से याद किया है।इस प्रकार भगवान् की कृपा की तरफ देखे,उनका ही भरोषा रखे तो उनकी कृपा बहुत विशेषता से प्रकट होगी।

Sunday, March 28, 2010

Guru giyan ki Guru prakash ki , sneh ki , mohabat ki , apnepan ki aur pa to jiwan ki har kushiya har alam roshan hao , har rah jyoti may ho , har pal mast ho , har pal anand aur Omkar masti
na kisike liye dukh peda karo na dukhi ho , apne ko khojo , apna anand badavo aur dusro ko bhi anand do , apne sukh ke liye kisiko dukh mat do , dusaro ko sukh dene ke liye kudh dukhi hote ho to aapka jiwan safal hai
Apne ko nitya shant, prasann rakhna hi apne sare udyog, vyapar pasha, vriti aur udeshya bana lo. Is sansaar me tumhara param kartavy yahi hai
Vyavhar to anek se karo lekin anek me jo chhhupa hai us Ek par drashti jami rahni chahiye ghade anek par unme akasha ek vaise hi SAB ME EK HI PARMATMA, WO HI EK
जब-जब हम कर्म करें तो कर्म को अकर्म में बदल दें अर्थात् कर्म का फल ईश्वर को अर्पित कर दें अथवा कर्म में से कर्तापन हटा दें तो कर्म करते हुए भी हो गया अकर्म। कर्म तो किये लेकिन उनका बंधन नहीं रहा।

संसारी आदमी कर्म को बंधनकारक बना देता है, साधक कर्म को अकर्म बनाने का यत्न करता है लेकिन सिद्ध पुरुष का प्रत्येक कर्म स्वाभाविक रूप से अकर्म ही होता है। रामजी युद्ध जैसा घोर कर्म करते हैं लेकिन अपनी ओर से युद्ध नहीं करते, रावण आमंत्रित करता है तब करते हैं। अतः उनका युद्ध जैसा घोर कर्म भी अकर्म ही है। आप भी कर्म करें तो अकर्ता होकर करें, न कि कर्ता होकर। कर्ता भाव से किया गया कर्म बंधन में डाल देता है एवं उसका फल भोगना ही पड़ता है।
kam aisa kijiye jinse ho sab ka bhala, bat aise kijiye jismai ho amrut bhara, aise boli bol sabko pram se pukariye, kadve bol bolkar na jindgi begadiye, haste - gate huve jindgi gujariye, aache karm karte huve dukh bhi agar pa rahe, himmat na har pyare bapu tere sath hai hriday ki kitab pe ye bat likh lejiye, ban ki sacche bhakt banki sacche amal kijiye, jag mai jagmagati huive rosni jagmagana hai, muskilo musibatto ka karna hai khatma, faried karki aapna hal na begadeye, jase prabhu rakhe vase jindgi gujariye, himmat na har, himmat na har, bapu tere sath hai pyare himmat na har.
सारांश यह है की गुरु कृपा के भाग्यशाली क्षण से सांसारिक जीवन को पार करने की पहेली हल हो जाती है ; मोक्ष प्राप्ति का द्वार स्वतः ही खुल जाता है और सभी दुःख और कष्ट सुख में बदल जाते हैं. जब सद्द गुरु का नित्य स्मरण किया जाता है तो विघन के कारन आने वाली रुकावटें अनायास ही नष्ट हो जातीं हैं ; मृत्यु स्वयं मर जाती है और सांसारिक दुखों का विस्मरण हो जाता है
भगवान बोलते मैं दिव्यता से जन्म लेता हूँ… जो मनुष्य मुझे कर्म दिव्य, जन्म दिव्य ऐसा जानेगा वो मेरा भक्त है…तो जिस के जन्म कर्म दिव्य है ऐसे परमात्मा की मैं संतान हूँ ऐसा खुद को जानेगा उस का जन्म कर्म दिव्य हो जाएगा..
गुरू के सान्निध्य से जो मिलता है वह दूसरा कभी दे नहीं सकता।

हमारे जीवन से गुरू का सान्निध्य जब चला जाता है तो वह जगह मरने के लिए दुनिया की कोई भी हस्ती सक्षम नहीं होती। गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते।

गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं।
संसार के सुख पाने की इच्छा दोष ले आती है और आत्मसुख पाने की इच्छा सदगुण ले आती है। ऐसा कोई दुर्गुण नहीं जो संसार के भोग की इच्छा से पैदा न हो। व्यक्ति बुद्धिमान हो, लेकिन भोग की इच्छा उसमें दुर्गुण ले आयेगी। चाहे कितना भी बुद्धू हो, लेकिन ईश्वर प्राप्ति की इच्छा उसमें सदगुण ले आएगी।

Saturday, March 27, 2010

तुम वो ही हो जो युगों से था, अभी है और बाद में भी रहेगा!!’ आप उस दयालु परमात्मा का सुमिरन करो.. कैसे सुमिरन करे? हम ने तो उस को देखा नहीं..जाना नहीं… तुम ने उस को देखा नहीं, जाना नहीं, लेकिन जिन महापुरुषों ने उस को देखा है, जाना है उन के अनुभव सुनो…उन की वाणी समझो..
भगवान् ने अपनी कृपा से हमें मनुष्य शरीर दिया है, गीता,रामायण-जैसे ग्रंथो से परिचय कराया है।सत्संग की बातों से परिचय कराया है। हमने उनसे कब कहा था कि आप ऐसा करो?अत: जिसने इतना दिया है,वह आगे भी देगा।नहीं देगा तो लाज किसकी जायेगी? इसलिये हम चिन्ता क्यों करें?
कभी आपने सोचा है -सत्ता की चाह में सत्य को भूल गये।मान की चाह में ज्ञान को भूल गये।धन की चाह में तन को भूल गये।सुविधा की चाह में सुख को भूल गये।साधन की चाह में साध्य को भूल गये।यश की चाह में ईश को भूल गये।सपनों की चाह में अपनों को भूल गये।
लोग सुखी हैं वे अपना राग नहीं छोड़ सकते। सुखी आदमी परहित में लगेगा तो उसका राग क्षीण होगा। दुःखी आदमी राग की वस्तु को मन से ही छोड़ेगा तो उसका योग होने लगेगा। भक्त भगवान में अपना राग मिलाने लगे तो उसकी भक्ति सफल होने लगेगी। सदगुरू के सिद्धान्तों में अपना राग मिला दे तो शिष्य सदगुरू बन जायगा।
बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता । जीवन का एक एक क्षण आत्मोपलब्धि, भगवत्प्राप्ति, मुक्ति के साधनों में लगाओ । हमें जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि है, जो सुविधा, अनुकूलता प्राप्त है उसका उपयोग वासना-विलास का परित्याग कर भगवान से प्रेम करने में करो । एक क्षण का भी इसमें प्रमाद मत करो । मन से, सम्पूर्ण बुद्धि से भगवान से जुड़ जाओ । इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भगवान में लग जाय । एकमात्र भगवान ही रह जायें, अन्य सब गुम हो जाय

Friday, March 26, 2010

दोष का होना उतनी भूल नहीं है,जितनी भूल किए हुए दोष को स्वीकार न करना और दोष-जनित प्रवृति से घोर दु:खी न होना है।
जो अपने सर्वस्व को स्वाहा करके उसके भस्मावशेष पर नाच सके वह प्रेम का नाम ले। जिसको चाहिये-चाहिये वह तो चाहिये के राज्य में रहे। त्याग के राज्य में उसका प्रवेश नहीं हो सकता। प्रेम का अर्थ है त्याग का राज्य।
आप अपने तन,मन,धन सबकी सार्थकता प्रभु की प्रसन्नता में ही समझेंगे,प्रभुकी प्रसन्नता के लिये उनकी त्याग में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे तो प्रभु को विवश होकर आपकी खुशामद करनी होगी। ऎसी बात होने पर भी आपको तो प्रभु की ही प्रसन्नता में प्रसन्न रहना चाहिये, उनसे अपनी खुशामद कराने की इच्छा रखना भी एक प्रकार का स्वर्थ ही है।
इस संसार रूपी अरण्य में कदम-कदम पर काँटे बिखरे पड़े हैं। अपने पावन दृष्टिकोण से तू उन काँटो और केंकड़ों से आकीर्ण मार्ग को अपना साधन बना लेना। विघ्न मुसीबत आये तब तू वैराग्य जगा लेना। सुख व अनुकूलता में अपना सेवाभाव बढ़ा लेना। बीच-बीच में अपने आत्म-स्वरूप में गोता लगाते रहना, आत्म-विश्रान्ति पाते रहना।
Ghatwale baba kethe the ki Sashatkari purush Bramhalok tak ke jivo ki sahayta karte hai aur unhe yeh ehsas bhi nahi hone dete ki koi sahayta kar rah hai
यह संसार स्वप्न जैसा है। उसमें अपने मन और इन्द्रियों को चंचल करके आप अपना असली खजाना, अपना असली साम्राज्य क्यों खो रहे हैं? संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहना यहाँ। कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य निष्कंटक जहाँ।।
जो भरा नही है भावो से........... बहेती जिस में रसधार नही l वो दिल नही है पथ्थर है.......... जिस दिल में भगवान के लिए प्यार नही ll

प्रार्थना

कभी रात को नींद खुल गई और घर के सब लोग सोये हो तो अकेले में शांत बैठना..
अपने को कोसना नही की सब लोग सोये और मेरी नींद खुल गई. .नही नही!..
‘हे प्रभु मुझे जगाना चाहते है मोह के नींद से..
इसलिए तुम ने ये बाहर की नींद थोडी देर के लिए नही दी..
वाह प्रभु..वाह गुरुदेव..मुझे अपनी भक्ति देना ..
मैं आप की राह पर चल सकू ऐसी मुझे शक्ति देना..
मैं आप से कभी विमुख ना हो जाऊ..
मैं आप की बतायी राह कभी छोड़ ना दू..
’ ऐसी ह्रदय पूर्वक प्रार्थना की जाती है तो भगवान वो ह्रदय का प्रेम देखते है..

Thursday, March 25, 2010

भगवान् ने मनुष्य की रचना न तो अपने सुखभोग के लिये की है,न उसको भोगों में लगाने के लिये की है और न उस पर शासन करने के लिये की है, प्रत्युत इसलिये की है कि वह मेरे से प्रेम करे,मैं उससे प्रेम करुँ,वह मेरेको अपना कहे,मैं उसको अपना कहूँ,वह मेरे को देखे,मैं उसको देखूँ!
'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !

Hai Nath Abto aise Daya Ho...

hai nath abto aise daya ho, jivan nirathak janena paye. hai nath abto aise saya ho kahi kuch bhi hamko kathin ab lagena,
sahas ki bati kabhi bhi buje na,
visamta, andhera khud bahg jaye,
hai nath abto aise daya ho.....

karne jo aaye vahe ab kare ham,
anmol jivan ko sarthak kare ham,
tujmai hi priti badhtihi jaye,
hai nath abto aise daya ho.....

aisa jagado fir so na paye,
apne ko niskam prami banaye,
aisa samay fir aaye na aaye,
hai nath abto aise daya ho.....

chode kabhi ham na daman tumhara,
tujipe bharosa atal ho hamara,
shradha ko apni nit ham badhaye,
hai nath abto aise daya ho.....

saiyam, sadachar tyage kabhi na,
halke jagse bhage kabhi na,
aab tutke ham bikhar na jaye,
hai nath abto aise daya ho.....

sach-juth ke bhad ko ham samje,
mithiya najaro mai ham na ulje,
hriday se tari yaade na jaye,
hai nath abto aise daya ho...
jivan nirathak janena paye...
जो निष्काम प्रेम है,हेतुरहित प्रेम है,भगवान् के लिये प्रेम है वह दूसरे व्यक्ति मे हो तो भी वह हुआ भगवान् में ही।’सबमें भगवान् विराजमान् हैं’ इस भावसे किसीसे भी प्रेम करना भगवान् से प्रेम करना है।अत: मान-बड़ाई और प्रतिष्ठाको ठुकराकर निष्कामभावसे आपसमें खूब प्रेम करना चहिये।
दूसरेके सुखसे सुखी होनेपर भोगोंकी इच्छा कम हो जाती है,क्योंकि भोगोंमें जो सुख मिलता है,वह सुख साधकको दूसरोंको सुखी देखने पर विशेषतासे मिल जाता है,जिससे सुखभोगकी आवश्यकता नहीं रहती।
कामना पूर्ति-जनित जो सुख है,वह त्याग करने में हमें समर्थ नहीं होने देती,तो कोई चिन्ता नहीं। जिस समय आप त्याग करने की सोचेंगे, उसी समय वह कामना निर्जीव हो होगी।और जैसे-जैसे यह लालसा आपकी बढती जयेगी कि मुझे कामना रहित होना है,मैं बिना कामना-रहित हुए रह ही नहीं सकता। आप सच मानिये,सभी कामनायें अपने आप नाश हो जायेंगी।
कभी धुंधला मत होने दो --- अगर आप सच्चे भक्त हें तो-- भक्ति की लगन को !--------- दुष्टता को लालाकारो ! उत्थान की अगन को !------ सज्जनता को सत्कारो ! आनंद के चमन को !-------- परमात्मा की पुकार ! सदज्ञान के गगन को ! ------सद्ज्ञान की धारा !
'हमारी बात तो हमारे मित्र भी नहीं मानते तो शत्रु हमारी बात माने यह आग्रह क्यों ? सुख हमारी बात नहीं मानता, सदा नहीं टिकता तो दुःख हमारी बात बात कैसे मानेगा ? लेकिन सुख और दुःख जिसकी सत्ता से आ आकर चले जाते हैं वह प्रियतम तो सतत हमारी बात मानने को तत्पर है। अपनी बात मनवा-मनवाकर हम उलझ रहे हैं, अब तेरी बात पूरी हो... उसी में हम राजी हो जाएँ ऐसी तू कृपा कर, हे प्रभु !
तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।

सदगुरु की पूजा

कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।

Wednesday, March 24, 2010

मैं नश्वर देह नहीं, मैं तो वह शाश्वत आत्मा हूँ जहाँ से देह की आँख को दर्शन की शक्ति, मन को मनन की शक्ति, कानों को श्रवण की शक्ति, नासिका को गंध की शक्ति, जिह्वा को स्वाद की शक्ति और बुद्धि को निर्णय करने की शक्ति मिलती है। वह आत्मा स्थिर रहती है जबकि निर्णय बदलते हैं, विचार बदलते हैं, देखने के दृश्य व सुनने के शब्द बदल...ते हैं फिर भी जो नहीं बदलता वह मेरा विट्ठल चैतन्य आत्मा ही मुझे सत्य लगता है।
Amritwani :Sara Brahmand, Sara Sansaar ek sharir hai.Jab tak tum harek se apni ekta ka anubhav karte rahoghe,tab tak sabhi paristhitian tumhare paksh mein rahenghi
सारी दुनियाके साथ प्रेम हो और एक के साथमें आपका वैर या द्वेष हो तो आपके लिये कलंक है।भगवान् आपको नहीं मिल सकते।
पहले इस देह का प्रारब्ध बना है, बाद में देह बनी है। तुम्हारे इस साधन की जो आवश्यकता है उसकी पहले व्यवस्था हुई है, बाद में देह बनी है। अगर ऐसा न होता तो जन्मते ही तैयार दूध नहीं मिलता। उस दूध के लिए तुमने-हमने कोई परिश्रम नहीं किया था। माँ के शरीर में तत्काल दूध बन गया और बिल्कुल बच्चे के अनुकूल। ऐसे ही हवाएँ हमने नहीं बनाईं, सूर्य के किरण हमने नहीं बनाये, प्राणवायु हमने नहीं बनाया लेकिन हमारे इस साधन को यह सब चाहिए तो सृष्टिकर्त्ता ने पहले बनाया। अतः इस शरीररूपी साधन की जो नितान्त आवश्यकता है उसके लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि में आवश्यकता पूरी करने की व्यवस्था है। अज्ञानजनित इच्छा-वासनाओं का तो कोई अन्त ही नहीं है। वे ही भटकाती हैं सबको।
शरीर-संसार का अपनापन अपने से न छूट सके तो भगवान् को पुकारो।वे छुड़ा देंगे।व्याकुल होकर, दुखी: होकर भगवान्से कहो कि हे नाथ! शरीर-संसार का मेरापन छूटता नहीं क्या करुँ! तो भगवान्की कृपा से छुट जायगा।
अपनी निर्बलता का ज्ञान वेदना जाग्रत करने में समर्थ है।यदि उस वेदना को परदोष-दर्षन से दबाया ना जाय ,तो वेदना भी स्वत: दोषों को भस्मीभूत कर निर्दोषता की स्थापना में समर्थ हो जाती है और फिर निर्दोषता दोषों को पुन: उत्पन्न नहीं होने देती।इस द्रष्टि से वेदना और दोषों को न दोहराना ही निर्दोष बनाने का मुख्य हेतु है।
किसी बड़े आदमीको आपने कुछ कहा भी तो वह उधर ध्यान नहीं देगा;क्योंकि उसकी तारीफ करनेवाले बहुत लोग हैं।किंतु वही बात आप किसी गरीबको कह देंगे तो उसके कलेजेमें चुभ जायेगी।वह मर्माहत हो जायगा। इसीलिये विपत्ति-काल में सौगुना स्नेह करे तब वह एक गुना के बराबर होता है।
किसी के ह्रदय में व्यर्थ का आघात न करना। अपने व्यवहार से कभी भी किसी के मन को व्यथा न पहुंचाना। गुलाब के समान काँटों से क्षत विक्षत होकर भी सभी को सुगंध का दान देना। किसी की प्रशंसा स्तुति से पिघलना मत एवंकिसी के द्वारा की गई आलोचना से उबलना मत ,आलोचना, आत्मसंशोधन तथा उन्नति में सहायता पहुँचाती है एवं विवेक बुद्धि को जाग्रत रखती है।
कामना पूर्ति-जनित जो सुख है,वह त्याग करने में हमें समर्थ नहीं होने देती,तो कोई चिन्ता नहीं। जिस समय आप त्याग करने की सोचेंगे, उसी समय वह कामना निर्जीव हो होगी।और जैसे-जैसे यह लालसा आपकी बढती जयेगी कि मुझे कामना रहित होना है,मैं बिना कामना-रहित हुए रह ही नहीं सकता। आप सच मानिये,सभी कामनायें अपने आप नाश हो जायेंगी।

Tuesday, March 23, 2010

सर्वस्व समपर्ण करनेपर भी यदि एक रत्तीभर प्रेम मिले तो सर्वस्व दे डालना चहिये।सच्चा प्रेमी ऐसा ही करता है।
’हे मेरे नाथ! हे मेरे प्रभु! इस पुकार में शब्द तो बाहरकी वाणीसे,क्रियासे निकलते हैं, पर आह भीतरसे ,स्वयं से निकलती है।भीतरसे जो आवाज निकलती है,उसमें एक ताकत होती है।वह ताकत उसकी होती है,जिसको वह पुकारता है।

Himat na hariye

Himat na hariye Prabhu na bisariye ,
Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye ,

kam ese kijeye ki jinse ho sabka bhala , bat ise kijiye jisme ho amrit ho bhara
mithe boli bolke sabko prem se pukariye , kadve bol bol ke na jindgi bigadiye ,

Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye ,ache karm karte huwe dukh abhi agar aa bhi jaye , pichle karmo ka bhugtan kar lena , galtiyo se bachete huwe sadhna badaeiye ,

galtiyo se bachate huwe bhakti ko badiye , himat na har , himat na har ,
bapu tere sath hai himat na har , hriday ke kitab par yah bat lik dijiye ,

ban ke sache bhakat sache dil se amal kijiye , subh kam karke kamal ban khudh bhi taro ,
auro ko bhi tariye , jag me jagmagati huwei jindgi gujariye ,

Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye ,mushkaliyo ,mushibato ka karna hai jaldi khatma ,
to har samay kahena tera shukar he mere i pramatma , fariyad karte huwe jindgi na bigadiye ,

himat na har , himat na har , bapu tere sath hai himat na har Haste Muskarate huwe Jindgi Gujariye
सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाओ और व्यवहार-काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ। दत्तचित्त होकर हर कोई कार्य करो। सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करो।

श्री राम स्तुति

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारुणं

हे मन! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर वे संसार के जन्म-मरणरूप दारुण भय को दूर करने वाले हैं, उनके नेत्र नव-विकसित कमल के सामान हैं, मुख-हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं

कंदर्प अगणित अमित छबि, नवनील-नीरद सुंदरं
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरं

उनके सौन्दर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीरों में मानो बिजली के सामान चमक रहा है, ऐसे पावन रूप जानकी
पति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकन्दनं
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नन्दनं

हे मन ! दीनों के बन्धु, सूर्य के सामान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनंदकंद, कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के सामान दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं

जिनके मस्तक पर रत्न-जटित मुकुट, कानों में कुंडल, भाल पर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंग में सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर-दूषण को जीत लिए है -

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं
मम ह्रदय-कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं

- जो शिव, शेष, और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं; तुलसीदास प्रार्थना करते हैं की वे श्री रघुनाथजी मेरे हृदयकमल में सदा निवास करें

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो
करुना निधान सुजान सीलू सनेहु जानत रावरो

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर सांवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है

एहि भाँति गौरी असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली

इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय में हर्षित हुईं तुलसीदासजी कहते हैं - भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल लौट चलीं

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे

गौरी जी को अनुकूल जानकर सीता जी के ह्रदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता सुन्दर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे
चरित्र को सुरक्षित रखने के लिये सब कुछ न्योछावर किया जा सकता है,किन्तु चरित्र किसी के बदले मे नहीं दिया जा सकता ।अतः चरित्र का महत्व शरीरादि सभी वस्तुओं से अधिक है।

Monday, March 22, 2010

गुरू के सान्निध्य से जो मिलता है वह दूसरा कभी दे नहीं सकता। हमारे जीवन से गुरू का सान्निध्य जब चला जाता है तो वह जगह मरने के लिए दुनिया की कोई भी हस्ती सक्षम नहीं होती। गुरू नजदीक होते हैं तब भी गुरू गुरू ही होते हैं और गुरू का शरीर दूर होता है तब भी गुरू दूर नहीं होते। गुरू प्रेम करते हैं, डाँटते हैं, प्रसाद देते हैं, तब भी गुरू ही होते हैं और गुरू रोष भरी नजरों से देखते हैं, ताड़ते हैं तब भी गुरू ही होते हैं।

गुरुदेव दया करदो......

गुरुदेव दया करदो मुजपर मुझे अपने सरन मै रहने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो.....
तुम्हारी सरन मै जो कोई आया पर हुवा सो एक ही पल मै
इस दर पे हम भी आये है इस दरपे गुजारा करने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो.....
सीर पर छाया घोर अँधेरा सुजात नहीं राह कोई
ये नयन मेरे और ज्योत तरी इन नैनों को भी बहने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो.....
चाहे तीर दो चाहे डूबा दो मर भी गिये तो देगे दुहाई ,
डूब भी गए तो देगे दुहाई
ये नव मरी और हाट तेरे मुझे भाव सागर से तारने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो......
तुम्हारी सरन मै जोभी आया पर हुवा सो एक ही पल मै
इस दर पे हम भी आये है इस दर पे गुजारा करने दो
मुझे ज्ञान के सागर से स्वामी अब निर्मल गागर भरने दो
गुरुदेव दया करदो......

Sunday, March 21, 2010

मन को ऊपर उठाना है तो सत्संग किया, नियम का आदर है तो उंचा उठेगा..मन बुध्दी के अनुसार चलेगा..अगर बुध्दी ज्ञान स्वरुप है तो सही निर्णय देगी…जिस के प्रिय भगवान नहीं, जिस के लिए भगवत प्राप्ति मुख्य नही, उस का संग ऐसे ठुकराओ जैसे करोडो वैरी सामने बैठे है यद्यपि वो परम स्नेही हो..
हे गुरुदेव ! ईश्वर ने तो हमें संसार में भेजा है काम-क्रोध के साथ परन्तुआपने हमें निष्कामी बनाया एवं क्रोध से छुड़ाया। ईश्वर ने तो हमें कर्मों के बन्धन में डाला परन्तु हे गुरुदेव ! आपने उन कर्म बन्धनों को काट डाला। प्रकृति ने हमारे बन्धन बनाये और हे गुरुदेव ! आपने हमारे लिए मोक्ष बनाया।संसार ने तो हमें चिन्ताएँ दीं प...रन्तु आपने हमें आनन्द दिया। नाते रिश्तेदारों ने हमारे लिए जवाबदारियाँ बनाईं परन्तु आपने हमें सभी जवाबदारियों से पार करके शुद्ध स्वरूप में स्थिति करा दी।

Koshish

jiwan me hamesha koshish yah karni chahiye jo chij hame dukh de pareshani de , hamare bich me kalah ka karan bane un bato se jitna dur rahe acha hai , jiwan ladi gagdo ke liye nahi hai , jiwan hai jiwan data ko pane ki liye uske parm sukh ko anubutit karne ke liye , voh parm sukh aur shanti sansari bandan nahi de sakate voh anand to param giyan aur param kripalu parmatma ke simran se hi prapt hota hai , kitno ko sudharne ke liye apne jiwan ko varth karte rahenge bas kudh ko bigadne se bacha lo to param aanand se dur aap ja nahi pavoge param sukh ki anubhuti sawah hi hone lagegi

Sahara

paya hai es duniya me voh sab to ek din chutega , jiwan bhar sath nibhane ko ek tera sahara kafi hai , kyo diyaye ab kisi aur ko ham Guruvar ki kripa se mitete gam , Guruvar ki kripa se mitete gam , Guruvar ki prshanta pane ko bas bhav hamara kafi hai , juthe jag ke juthe nate , hai kam kisi ke nahi aate , hai kam kisi ke nahi aate , muje nashavar in rishto se kya bas sath tumhara kafi hai , bas sath tumhara kafi hai , nazro ko dokha dete hai yah juthe nazare duniya ke , yah juthe nazare duniya ke , meri pyasi nazaro ke liye bapu ka ishara kafi hai , bapu ka ishara kafi hai , ma bache ko pyar karti hai isliye ki apne garbh se use janam diya hai Par Guruvar shishay ko pyar isllye kare te hai ki use garbhvas se mukat karana hai , ban ban ke sahare tutate hai yah rasm purani hai jag ki , ttite ma kabhii chute na kabhi bas tera sahara kafi hai , Gurudev ka sahara hi shashavaat sahara hai baki sahara to chut jayenge , tut jayenge baki sab to nazaro ka dokha hai yahi ek nazro ka amrit hai jo har pal dhanya kar raha hai hamare jiwan ko
मेरा मकान ठीक हो जाए….मेरी नोकरी ठीक हो जाए…मेरा कर्जा ठीक हो जाए..मेरा दूकान ठीक हो जाए..मेरा बेटा ठीक हो जाए…ये ठीक हो जाए,वो ठीक हो जायेवालो ये भी समझ लो की रावण की लंका, हिरण्यकश्यपू का हिरण्यपुर ठीक नहीं रहा… तो ये पक्का समझ लो की ठीक करना ही सबकुछ नहीं …जो कभी बे-ठीक नहीं होता उस आत्मा में टिकना, उस को आत्म-स्वरुप मानना…तो सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जाता है…
दिल में आत्म-साक्षात्कार की योग्यता होने के बाद भी यदि विषय, विकार, काम, क्रोध आदि से आसक्ति नहीं मिटी । सागर से नदियाँ भली, जो सबकी प्यास बुझाए।। ब्रह्मलोक तक जाओ और पुण्यों का क्षय होने पर वापस आओ इससे उचित होगा कि मनुष्य जन्म में ही आत्मज्ञान प्राप्त कर लो ताकि पुनः जन्म-मरण के चक्कर में फँसना ही न पड़े।

Sukh

Puri jindgi laga ke jo kamate hai voh sath nahi jata par Gurudaware jo aap kamate ho voh sadev sath raheta hai , Guru dware pe aap jiwan ki anmol kamai karte hao voh pa lo use mat gavao , sab lutake bhi yah kama sakte ho to kuch nahi lutaya , par sab kuch kamake bhi agar asli khajana gava diya to samjo sab kuch varth me gava diya bas khajana to khula pada hai jitna lut sakate ho lut lo jitna kama sakate ho kama lo jiwan ki sham hone se pahele apne asli khajane ko pa lo aap sada hai , chetan rup hai giyan rup hai , apne sat sawabhav se hi aapko sukh milta hai bas ushi sukh ko pahechan lo
सारांश यह है की गुरु कृपा के भाग्यशाली क्षण से सांसारिक जीवन को पार करने की पहेली हल हो जाती है ; मोक्ष प्राप्ति का द्वार स्वतः ही खुल जाता है और सभी दुःख और कष्ट सुख में बदल जाते हैं. जब सद्द गुरु का नित्य स्मरण किया जाता है तो विघन के कारन आने वाली रुकावटें अनायास ही नष्ट हो जातीं हैं ; मृत्यु स्वयं मर जाती है और सांसारिक दुखों का विस्मरण हो जाता है

Hai Gurudev

Hai gurudev daya na sagar nitya prathna aaj karu charan kamal ni seva karta karta jivan purna karu, gurudev aavo aaj padharo am jivan na aagainneye aagyan ne sisyani buddhi aave tame ujarone, malkantu a mukhdu guru nu muj nayanothi nehariya karu malkanta a mukhdamathi hari om hari om suneya karu, guru ne manohar murti jota nayanne asrudhara vahe a madhuriya bhareli murti aave hridaye vas kare, charan kamalne nirkhi nirkhi haiyu maru nachi rahe man na bhav batavu avu vanima chaturiya nathi, sankat sisya par aave to pal ma dodi aavo cho nij jan kaire raxa kaje ghadibhar ma aavo cho, hu das no das tamaro tuj bin koi nathi maru, saga sahodai sav swarthna ek saran sachu taru, nitya prathna aaj karu chu gurudev sarne lejo bhaktjano ne aapna vine bhavsagar tari dejo, hai gurudev…
दुनिया की सब चीजें कितनी भी मिल जायें, किंतु एक दिन तो छोड़कर जाना ही पड़ेगा। आज मृत्यु को याद किया तो फिर छूटने वाली चीजों में आसक्ति नहीं होगी, ममता नहीं होती और जो कभी छूटने वाला नहीं है, उस अछूट के प्रति, उस शाश्वत के प्रति प्रीति हो जायेगी, तुम अपना शुद्ध-बुद्ध, सच्चिदानंद, परब्रह्म परमात्म-स्वलोगे।रूप पा लोगे। जहाँ इं...द्र का वैभव भी नन्हा लगता है, ऐसे आत्मवैभव को सदा के लिए पा लोगे।
हृदयपूर्वक ईमानदारी से प्रभु को प्रार्थना करो कि: ‘हे प्रभु ! हे दया के सागर ! तेरे द्वार पर आये हैं । तेरे पास कोई कमी नहीं । तू हमें बल दे, तू हमें हिम्मत दे कि तेरे मार्ग पर कदम रखे हैं तो पँहुचकर ही रहें । हे मेरे प्रभु ! देह की ममता को तोड़कर तेरे साथ अपने दिल को जोड़ लें ’
Chahai kitne bhi viprit paristhitiya kyu na aajaye lakin apne man ko udvighna n honedo samay bit jayega paristhitiya badal jayangi tab japdhayan karunga yah sochkar apna sadhan-bhajan n chodo viprit paristhiya ane par yadi sadhan-bhajan mai dhil di to paristhitiya aap par havi ho jayegi lakin yadi aap majbut rahai sadhna-bhajan par atal rahai to paristhitiyo ki sir par pair rakhkar aage badhnai ka samirthiya aajayega….
" मेरे ऐसे दिन कब आयेगे कि देह होते हुए भी मै स्वयं को अपने देह से अनुभव करूँगा ?... एकांत मै बैठा-बैठा मै अपने मन-बुद्धि को पृथक देखते-देखते अपनी आत्मा मे तृप्त होऊगा ?... मे आत्मानंद मे मस्त रहकर संसार के व्यवहार मे निश्चिंत रहूगा ? ... सत्रु और मित्र के व्यवहार को मे खेल सम्जुंगा ?"
Parmatma ko chhodkar jo vishayo ka chintan karte hai unke bade durbhagya hai vish ka chintan karnese maut nahi hoti par vishayo ka chintan karne matra se patan!!!

Thursday, March 18, 2010

Ninda se main kyoon murjhaun, prashansa ko ki prashansa se kyoon phoolon. Ninda se mera ghata nahi or prashansa se main badhta nahi, jaisa hun wo hi rehta hun
Hai Prabh, mai narak ke dar se tari pooja karti hu to tu muje narak rupi aag mai jalde, agar swarg ke lobh ki leye tari seva karti hu to swarg ke dwar mare liye sada ke liye bandh kar do, lakin mai tari ko panekeliye tari bhakti karti hu to tu muje tare sunder swarup se vanchit nahi rahne dena
जीवन में निर्भयता आनी चाहिए। भय पाप है, निर्भयता जीवन है। जीवन में अगर निर्भयता आ जाय तो दुःख, दर्द, शोक, चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं। भय अज्ञानमूलक है, अविद्यामूलक है और निर्भयता ब्रह्मविद्यामूलक हैं। जो पापी होता है, अति परिग्रही होता है वह भयभीत रहता है। जो निष्पाप है, परिग्रहरहित है अथवा जिसके जीवन में सत्त्वगुण की प्रधानता है वह निर्भय रहता है।

है नाथ अब तो

है नाथ अब तो ऐसी दया हो, जीवन निरर्थक जाने न पाये, यह मन न जाने क्या क्या कराये, कुछ बन न पाया अपने बनाये, संसार मे ही आशक्त रह कर दिन रत आपने मतलब की कह कर सुख की लिए लाखो दुःख सहकर ये दिन अभीतक योही बिताये, ऐसा जगादो फिर सोना जावू अपनेको निष्काम प्रमी बनावु, मे आपको चाहू और पावू, संसार का भई रह कुछ न जाये, वह योग्यता दो सत्कर्म करलू अपने ह्रदय मे सदभाव भर लू, नर्तन है साधन भवसिंदु तर लू, ऐसा समई फिर आये न आये, है नाथ मुझे नीरअभिमानी बनादो मे हु तुम्हारी आस लगाये ! है नाथ अब तो ऐसी दया करदो है मेरे गुरुदेव

Sukh Dukh

ham nahi chahate dukh aaye , ham nahi chahate sukh jaye phir bhi yahi hota hai kyoki ham log sukh aur dukh ko darsta nahi mante usme ulajate rahete hai islye voh chije hame jyada pareshan karti rahatihai bas yah samjo yah sab aana jana hai sukh nahi raha to dukh bhi nahi rahega , aur jo kush bhi aa ja raha hai mere shrir ko prabhav dal raha hai ,mera man to unse kahi uper hai use to kuch bhi nahi farak pada raha hai voh to matra drasta bana huwa hai bas yah bav hai hamare sukho ka karan ban jayega aur dukho ka nivarak bhi ban jayega jo ho raha hai bas hone do aur dekhate raho use
kitene hi logo ko sukh dukh aata hai par voh aapko farak nahi padata kyoki aap usme jude huwe nahi ho , jab aap judte ho aur use apna manate ho to voh bat aapko sukh aur dukh deti hai par jab tak aap unse nirlep aur nirvikar ho tab voh bat aapko sukh aur dukh nahi deti , karta banana hi dukh ka karna hai aur darshta banana hi sukh ka karan hai bas darshta bane raho aur param ananad aur param sukh ke marg ki aur chal pado jiwan jine ki chah bad jayegi param aanad panae ki rah mil jayegi

Amrit Bindu

at the proper time if you do not take action or accomplish a task, then later on you will face much difficulty. When the time slips by, then later on it keeps surfacing in memory. "Samay chuki puni paschataane, kyaa varsha krushi sukhaane". Therefore don't miss the moment. Do not miss the opportunity which presents itself at that moment. kam aisa kijiye jinse ho sab ka bhala, bat aise kijiye jismai ho amrut bhara

Amrut Bindu

kam aisa kijiye jinse ho sab ka bhala, bat aise kijiye jismai ho amrut bhara, aise boli bol sabko pram se pukariye, kadve bol bolkar na jindgi begadiye, haste - gate huve jindgi gujariye, aache karm karte huve dukh bhi agar pa rahe, himmat na har pyare bapu tere sath hai hriday ki kitab pe ye bat likh lejiye, ban ki sacche bhakt banki sacche amal kijiye, jag mai jagmagati huive rosni jagmagana hai, muskilo musibatto ka karna hai khatma, faried karki aapna hal na begadeye, jase prabhu rakhe vase jindgi gujariye, himmat na har, himmat na har, bapu tere sath hai pyare himmat na har.