Thursday, March 29, 2012

विकारों से बचने हेतु संकल्प-साधना

विषय विकार साँप के विष से भी अधिक भयानक हैं। इन्हें छोटा नहीं समझना चाहिए। सौ मन दूध में विष की एक बूँद डालोगे तो परिणाम क्या मिलेगा ? पूरा सौ मन व्यर्थ हो जाएगा।
साँप तो काटेगा, तभी विष चढ़ पायेगा किंतु विषय विकार का केवल चिंतन हो मन को भ्रष्ट कर देता है। अशुद्ध वचन सुनने से मन मलिन हो जाता है।
अतः किसी भी विकार को कम मत समझो। विकारों से सदैव सौ कौस दूर रहो। भ्रमर में कितनी शक्ति होती है कि वह लकड़ी को भी छेद देता है, परंतु बेचारा फूल की सुगंध पर मोहित होकर, पराधीन होकर अपने को नष्ट कर देता है। हाथी स्पर्श के वशीभूत होकर स्वयं को गड्ढे में डाल देता है। मछली स्वाद के कारण काँटे में फँस जाती है। पतंगा रूप के वशीभूत होकर अपने को दीये पर जला देता है। इन सबमें सिर्फ एक-एक विषय का आकर्षण होता है फिर भी ऐसी दुर्गति को प्राप्त होते हैं, जबकि मनुष्य के पास तो पाँच इन्द्रियों के दोष हैं। यदि वह सावधान नहीं रहेगा तो तुम अनुमान लगा सकते हो कि उसका क्या हाल होगा ?
अतः भैया मेरे ! सावधान रहें। जिस-जिस इन्द्रिय का आकर्षण है उस-उस आकर्षण से बचने का संकल्प करें। गहरा श्वास लें और प्रणव (ओंकार) का जप करें। मानसिक बल बढ़ाते जायें। जितनी बार हो सके, बलपूर्वक उच्चारण करें। फिर उतनी ही देर मौन रहकर जप करें। आज उस विकार में फिर से नहीं फँसूँगा या एक सप्ताह तक अथवा एक माह तक नहीं फँसूँगा... ऐसा संकल्प करें। फिर से गहरा श्वास लें। 'हरि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ.... हरि ॐॐॐॐॐ.
मन मछली की तरह भटकने वाला है। विवेक रूपी ज्ञान से भक्ति स्वयं प्राप्त हो जाएगी । भक्ति भजन श्रेष्ठ होगा तो भगवान दरवाजा खटखटाने आएंगे। संसार का चिंतन करने के बजाए भगवान के नाम का जाप करो। मन पवित्र रहेगा, क्योंकि मन बिगड़ गया तो सुधरना मुश्किल है।

ऐ गाफिल ! न समझा था , मिला था तन रतन तुझको ।
मिलाया खाक में तुने, ऐ सजन ! क्या कहूँ तुझको ?
अपनी वजूदी हस्ती में तू इतना भूल मस्ताना …
अपनी अहंता की मस्ती में तू इतना भूल मस्ताना …
करना था किया वो न, लगी उल्टी लगन तुझको ॥
ऐ गाफिल ……।
जिन्होंके प्यार में हरदम मुस्तके दीवाना था…
जिन्होंके संग और साथ में भैया ! तू सदा विमोहित था…
आखिर वे ही जलाते हैं करेंगे या दफन तुझको ॥
ऐ गाफिल …॥
शाही और गदाही क्या ? कफन किस्मत में आखिर ।
मिले या ना खबर पुख्ता ऐ कफन और वतन तुझको ॥
ऐ गाफिल ……।

Wednesday, March 28, 2012

अमुक क्या कहता है क्या नहीं, इस पर यदि ध्यान दिया करें तो कुछ काम नहीं कर सकते।बाहरी बातों के बारे में सोचकर अपनी मानसिक शांति भंग न करो।अपनी वास्तविकता को समझ लेने वाला पुरुष आनन्द के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं। किसी भी बात और किसी भी घटना से वह नहीं डरता। यह जान लेने वाला पुरुष पाप पुण्यों को छोड़कर सदा आत्मा को याद करने लगता है और किये हुए कर्म को भी आत्मरूप ही जान लेता है।

Thursday, March 22, 2012

वैराग्य

वैराग्य का अर्थ है कि दुनिया के किसी भी पदार्थ में मन अथवा प्रीति न हो और न वासना ही रहे| ऐसा नहीं कि हाथ में कमण्डल उठाएं, जटाएं रखवाएं, चोगा पहनें तो उसे वैराग्यवान कहा जाएगा| अन्तःकरण में यदि वासनाएं रही होंगी तो उसे वैराग्य नहीं कहा जाएगा|
...
जिसका अज्ञान, कर्म और वासनाएं नाश हो जाती हैं, वह विदेह मुक्त हो जाता है| उसका फिर जन्म नहीं होता|

*** तुम अच्छा संग करोगे और सुन्दर पुस्तक पढ़ोगे तो तुम्हारे चरित्र सुधरेंगे और इस प्रकार तुम्हारा जीवन भी उच्च बनेगा|
कोई कामी हो तो उसको भी भगवान मिल सकते है, कोई लोभी हो तो उसको भी भगवान मिल सकते है, कोई मोही हो तो उसके भी भगवान मिल सकते है, लेकिन जो दूसरों को धोखा देता है उसको भगवान नहीं मिल सकते है,
भगवान राम कहते है “ निर्मल मन जन मोही भाता... “

Wednesday, March 21, 2012

मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।

हिंसा दो प्रकार की होती हैः कानूनी और गैर-कानूनी। जब जल्लाद किसी को फाँसी पर लटकाता है, सैनिक आक्रमणकारी शत्रुदेश के सैनिक पर बंदूक चलाता है तो यह कानूनी हिंसा अपराध नहीं मानी जाती, वरन् उसके लिए वेतन दिया जाता है। हमारे शास्त्रीय संविधान के विरुद्ध जो हिंसा है वह हमारे जीवन में नहीं होनी चाहिए। मानवता को सुदृढ़ बनाने कि लिए, सुरक्षित रखने के लिए और गौरवान्वित करने के लिए हमारे जीवन से, वाणी से, सकल्प से किसी को कष्ट न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। हम जो करें, जो कुछ बोलें, जो कुछ लें, जो कुछ भोगें, उससे अन्य को तकलीफ न हो इसका यथासंभव ध्यान रखना चाहिए। यह मानवता का भूषण है।

आत्मसाक्षात्कार करना बड़ा आसान है । कैसे ? अपनी जो भेददर्शन करनेवाली बुध्दि है, उसे अभेद-दर्शन में बदल दो बस । जिन कारणों से भेद दिखते हैं उन्हें मिटा दो तो साक्षात्कार हो जायेगा । सर्वत्र एक परब्रह्म परमात्मा है, उसके अलावा अन्य कुछ भी नहीं है । इस बात को दृढ़ता से मानकर चरितार्थ करने में लगे रहो ।
गृहस्थ में सुखी रहने की कला - जिन बातों को याद करने से तुम्हें चिंता होती है, दुःख होता है या किसीके दोष दिखते हैं, उन्हें विष की नाईं त्याग दो । जिन बातों से तुम्हारा उत्साह, आत्मिक बल बढ़ता है, प्रसन्नता बढ़ती है उनका आदर से चिंतन करो । अपने चित्त को ऐसा झंझटमुक्त रखो कि किसीकी निंदा, द्वेष, नफरत उसको बिगाड़ न सके । किसीने आपको गाली दी और वह गाली देकर आपको दुःखी करना चाहता है तब यदि आप दुःखी हो गये तो उसका तो काम बन गया । आप तो हृदय को झंझटमुक्त बनाइये । गाली दी किसीने तो सोचो, 'वह तो आकाश में चली गयी, मेरा क्या बिगड़ता है ! और देता है तो हाड़-मांस के शरीर को देता है ।' यदि वह दोष हमारे अंदर है तो हमें निकालना चाहिए और यदि ईष्या के कारण बद-इरादे से दोषारोपण करे, कुप्रचार करे-करावे तो हमें निर्द्वन्द्व रहना चाहिए ।
शरीर अन्दर के आत्मा का वस्त्र है वस्त्र को उसके पहनने वाले से अधिक प्यार मत करो

जीवन में ऐसे कर्म किये जायें कि एक यज्ञ बन जाय। दिन में ऐसे कर्म करो कि रात को आराम से नींद आये। आठ मास में ऐसे कर्म करो कि वर्षा के चार मास निश्चिन्तता से जी सकें। जीवन में ऐसे कर्म करो कि जीवन की शाम होने से पहले जीवनदाता से मुलाकात हो जाय।
अतीत का शोक और भविष्य की चिंता क्यों करते हो?हे प्रिय !वर्तमान में साक्षी, तटस्थ और प्रसन्नात्मा होकर जीयो....

हम दुःख का कारण बाह्य परस्थिति को मानते हैं, किसी वस्तु या व्यक्ति को मानते हैं, वास्तव में दुःख का कारण हमारी खुद की नासमझी है । व्यक्ति, वस्तु और परस्थिति को ठीक करने से दुःख नहीं मिटता, दुःख मिटता है खुद की नासमझी मिटाने से और सच्ची समझ आती है सत्संग से, भगवन्नाम जप से । वास्तव में जीवमात्र का स्वभाव आनंदस्वभाव ही है । गुरुमंत्र की दीक्षा, सत्संग के आश्रय और भगवन्नाम के सुमिरन से अपने आनंद को जगायें ।

भगवान ने आपको संसार में दुःखी होने के लिए नहीं भेजा है, चिंता और तनाव में रहने के लिए नहीं भेजा है । चिंता की जगह भगवान के नाम का चिंतन करें, भगवान के नाम का आश्रय लें, भगवान का ध्यान करें, गुरु-ज्ञान की कुंजियाँ लेकर सुख-दुःख के सिर पर पैर रखकर अपने आनंदस्वभाव में स्थित हो जायें । वर्तमान में प्रसन्न रहें, अपने मन को कभी मलिन न होने दें । मंत्रों में सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने की विलक्षण क्षमता होती है । यंत्र से भी मंत्र अधिक प्रभावशाली होता है ।
सच्चे साधक :-

पुराने जमाने की बात है। किसी गांव में एक गाड़ीवान रहता था। वह लोगों को गांव से शहर और एक गांव से दूसरे गांव छोड़ने का काम करता था। लेकिन वह अपने काम से संतुष्ट नहीं था। हर समय वह परेशान रहता था। तभी उसने लोगों से एक संत की चर्चा सुनी। वह उनके पास पहुंच गया। उसने संत को प्रणाम कर कहा - महाराज , मैं एक गांव से दूसरे गांव गाड़ी ले जाता हूं। यह काम मुझे पसंद नहीं क्योंकि गाड़ी हांकने के कारण मैं भगवान की प्रार्थना करने से वंचित रहता हूं। मुझे ईश्वरोपासना का समय ही नहीं मिलता। मैं इस धंधे से छुटकारा चाहता हूं। संत ने पूछा - क्या गाड़ी चलाते समय तुम्हें रास्ते में गरीब अपंग और वृद्ध आदि मिलते हैं ? गाड़ीवान ने कहा - हां ऐसे लोग समय - समय पर मिलते रहते हैं।

संत ने पूछा - क्या तुम उनसे पैसे लेते हो या उन्हें मुफ्त में यात्रा कराते हो ? इस पर गाड़ीवान बोला - मैं गरीब , दीन - दुखियों , बूढ़े अपाहिज आदि से कुछ भी नहीं लेता। इस पर संत ने कहा - तब तो तुम इस पेशे को बिल्कुल मत छोड़ना। तुम गरीब और असहाय व्यक्तियों को एक जगह से दूसरी जगह छोड़कर जो पुण्य कमा रहे हो वह तुम्हें प्रार्थना से कभी नहीं मिलेगा। क्योंकि दीन - दुखियों की सेवा ही सच्ची प्रार्थना है। तुमने उनकी मदद कर उनसे कहीं बड़ा काम किया है जो दिन - रात भगवान का नाम जपते रहते हैं या तीर्थयात्रा या व्रत - उपवास करते हैं। तुम सच्चे साधक हो। इसलिए जाओ , जो कर रहे हो उसे ही मन लगाकर करते रहो। गाड़ीवान संतुष्ट होकर चला गया।
जब सबमे परमात्मबुद्धि की जाती है
तब सब कुछ परमात्मा ही है
ऐसा दिखने लगता है | फिर इस
परमात्मदृष्टिसे भी उपराम होने से
संपूर्ण संशय स्वतः
निवृत्त हो जाते है |

- पूज्य गुरुदेव
तूफान और आँधी हमको न रोक पाये।
वे और थे मुसाफिर जो पथ से लौट आये।।
मरने के सब इरादे जीने के काम आये।
हम भी तो हैं तुम्हारे कहने लगे पराये।।

ऐसा कौन है जो तुम्हें दुःखी कर सके? तुम यदि न चाहो तो दुःखों की क्या मजाल है जो तुम्हारा स्पर्श भी कर सके? अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड को जो चला रहा है वह चेतन तुम्हीं हो।
हम दुःख का कारण बाह्य परस्थिति को मानते हैं, किसी वस्तु या व्यक्ति को मानते हैं, वास्तव में दुःख का कारण हमारी खुद की नासमझी है । व्यक्ति, वस्तु और परस्थिति को ठीक करने से दुःख नहीं मिटता, दुःख मिटता है खुद की नासमझी मिटाने से और सच्ची समझ आती है सत्संग से, भगवन्नाम जप से । वास्तव में जीवमात्र का स्वभाव आनंदस्वभाव ही है । गुरुमंत्र की दीक्षा, सत्संग के आश्रय और भगवन्नाम के सुमिरन से अपने आनंद को जगायें ।

हमारी बुद्धि का दुर्भाग्य तो यह है कि जो सदा साथ में है उसी साथी से मिलने के लिए तत्परता नहीं आती। जो हाजरा-हजूर है उससे मिलने की तत्परता नहीं आती। वह सदा हमारे साथ होने पर भी हम अपने को अकेला मानते हैं कि दुनियाँ में हमारा कोई नहीं। हम कितना अनादर करते हैं अपने ईश्वर का !

'हे धन ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे पति ! तू मेरी रक्षा कर। पत्नी ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे बेटे ! बुढ़ापे में तू मेरी रक्षा कर।' हम ईश्वरीय विधान का कितना अनादर कर रहे हैं !!

बेटा रक्षा करेगा ? पति रक्षा करेगा ? पत्नी रक्षा करेगी ? धन रक्षा करेगा ? लाखों-लाखों पति होते हुए भी पत्नियाँ मर गईं। लाखों-लाखों बेटे होते हुए भी बाप परेशान रहे। लाखों-लाखों बाप होते हुए भी बेटे परेशान रहे क्योंकि बापों में बाप, बेटों में बेटा, पतियों में पति, पत्नियों में पत्नी बन कर जो बैठा है उस प्यारे के तरफ हमारी निगाह नहीं जाती।

भूल्या जभी रबनू तभी व्यापा रोग।

जब उस सत्य को भूले हैं, ईश्वरीय विधान को भूले हैं तभी जन्म-मरण के रोग, भय, शोक, दुःख चिन्ता आदि सब घेरे रहते हैं। अतः बार-बार मन को इन विचारों से भरकर, अन्तर्यामी को साक्षी समझकर प्रार्थना करते जाएँ, प्रेरणा लेते जाएँ और जीवन की शाम होने से पहले तदाकार हो जाएँ।

ॐ शांति...... ॐ आनन्द...... ॐ....ॐ.....ॐ....।

शांति.... शांति.....। वाह प्रभु ! तेरी जय हो ! ईश्वरीय विधान। तुझे नमस्कार ! हे ईश्वर ! तू ही अपनी भक्ति दे और अपनी ओर शींच ले।

नारायण..... नारायण..... नारायण.....

विधान का स्मरण करके साधना करेंगे तो आपकी सहज साधना हो जायगी। गिरि गुफा में तप करने, समाधि लगाने नहीं जाना पड़ेगा। सतत सावधान रहें तो सहज साधना हो जाएगी। ईश्वरीय विधान को समझकर जीवन जिएं, उसके साथ जुड़े रहें तो सहज साधना हो जाएगी |

- पूज्य गुरुदेव