Thursday, April 22, 2010

धन में, वैभव में और बाह्य वस्तुओं में एक आदमी दूसरे आदमी की पूरी बराबरी नहीं कर सकता। जो रूप, लावण्य, पुत्र, परिवार, पत्नी आदि एक व्यक्ति को है वैसे का वैसा, उतना ही दूसरे को नहीं मिल सकता। लेकिन परमात्मा जो वशिष्ठजी , कबीर, जो रामकृष्ण, धन्ना जाट, जो राजा जनक को मिले हैं वे ही परमात्मा सब व्यक्ति को मिल सकते हैं। शर्त यह है कि परमात्मा को पाने की इच्छा तीव्र होनी चाहिए।

Tuesday, April 20, 2010

यह जीव जब अपने शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यस्वरूप को वरना चाहता है तो वह प्रेम में चड़ता हैजीव किसी हाड-मांस के पति या पतनी को वरकर विकारी सुख भोगना चाहता है तब प्रेम में पड़ता हैशरीर के द्वारा जब सुख लेने की लालच होती है तो प्रेम में पड़ता है और अंतर्मुख होकर जब परम सुख में गोता मारने की इच्छा होती है तब प्रेम में चड़ता है प्रेम किये बिना कोई रह नहीं सकताप्रेम में जो पड़े,वह संसार है..प्रेम में जो चड़े,वह साक्षात्कार है

कोई प्रेम में पड़ता है तो कोई प्रेम में चड़ता है प्रेम में पड़ना एक बात है लेकिन प्रेम में चड़ना तो कोई निराली ही बात है

वे सत्पुरूष क्यों हैं ? कुदरत जिसकी सत्ता से चलती है उस सत्य में वे टिके हैं इसलिए सत्पुरूष हैं। हम लोग साधारण क्यों हैं ? हम लोग परिवर्तनशील, नश्वर, साधारण चीजों में उलझे हुए हैं इसलिए साधारण हैं।

संतोंके दर्शन,स्पर्श,उपदेश-श्रवण और चरणधूलिके सिर चढ़ानेकी बात तो दूर रही,जो कभी अपने मनसे संतोंका चिन्तन भी कर लेता है,वही शुद्धान्त:करण होकर भगव्तप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।

मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।
जैसे पृथ्वी में रस है। उसमें जिस प्रकार के बीज बो दो उसी प्रकार के अंकुर, फल-फूल निकल आते हैं। उसी प्रकार वह चैतन्य राम रोम-रोम में बस रहा है। उसके प्रति जैसा भाव करके चिन्तन, स्मरण होता है वैसा प्रतिभाव अपने आप मिलता है।
वह रोम-रोम में बसा है इसलिए उसका नाम राम है। उसका चिन्तन करने से वह ताप, पाप, संताप और थकान को हर लेता है इसलिए उसका नाम हरि है। सर्वत्र वह खुद ही खुद है इसलिए उनका नाम खुदा है। वह कल्याणस्वरूप है इसलिए उसका नाम शिव है।
जो तुम्हारे दिल को चेतना देकर धड़कन दिलाता है, तुम्हारी आँखों को निहारने की शक्ति देता है, तुम्हारे कानों को सुनने की सत्ता देता है, तुम्हारी नासिका को सूँघने की सत्ता देता है और मन को संकल्प-विकल्प करने की स्फुरणा देता है उसे भरपूर स्नेह करो।

तुम्हारी 'मैं....मैं...' जहाँ से स्फुरित होकर आ रही है उस उदगम स्थान को नहीं भी जानते हो फिर भी उसे धन्यवाद देते हुए स्नेह करो। ऐसा करने से तुम्हारी संवित् वहीं पहुँचेगी जहाँ योगियों की संवित् पहुँचती है, जहाँ भक्तों की भाव संवित विश्रान्ति पाती है, तपस्वियों का तप जहाँ फलता है, ध्यानियों का ध्यान जहाँ से सिद्ध होता है और कर्मयोगियों को कर्म करने की सत्ता जहाँ से मिलती है।

Monday, April 19, 2010

शरीर संसार के लिए है। एकान्त अपने लिए है और प्रेम भगवान के लिए है। यह बात अगर समझ में आ जाय तो प्रेम से दिव्यता पैदा होगी, एकान्त से सामर्थ्य आयेगा और निष्कामता से बाह्य सफलताएँ तुम्हारे चरणों में रहेंगी।

धन से बेवकूफी नहीं मिटती है, सत्ता से बेवकूफी नहीं मिटती है, तपस्या से बेवकूफी नहीं मिटती है, व्रत रखने से बेवकूफी नहीं मिटती है। बेवकूफी मिटती है ब्रह्मज्ञानी महापुरूषों के कृपा-प्रसाद से और सत्संग से, सत्शास्त्रों की रहमत से।

आनंद का ऐसा सागर मेरे पास था और मुझे पता न था अनंत प्रेम का दरिया मेरे भीतर लहरा रहा था और मैं भटक रहा था संसार के तुच्छ शुकों में! हे मेरे गुरुदेव! मुझे माफ़ कर देना

हिलनेवाली, मिटनेवाली कुर्सियों के लिए छटपटाना एक सामान्य बात है, जबकि परमात्म प्राप्ति के लिए छटपटाकर अचल आत्मदेव में स्थित होना निराली ही बात है।यह बुद्धिमानों का काम है।

चन्द्रमा में अमृत बरसाने की सत्ता जहाँ से आती है वही चैतन्य तुम्हारे दिल को और तुम्हारी नस-नाड़ियों को, तुम्हारी आँखों को और मन-बुद्धि को स्फुरणा और शक्ति देता है। जो चैतन्य सत्ता सूर्य में प्रकाश और प्रभाव भरती है, चन्द्रमा में चाँदनी भरती है वही चैतन्य सत्ता तुम्हारे हाड़-मांस के शरीर में भी चेतना, प्रेम और आनन्द की धारा बहाती है।

सरों की निंदा, बदनामी और चुगली न करे, औरों को नीचा न दिखाये। निंदा करना अधर्म बताया गया है, इसलिए दूसरों की और अपनी भी निंदा नहीं करना चाहिए। क्रूरताभारी बात न बोले। जिसके कहने से दूसरों को उद्वेग होता हो, वह रूखाई से भरी हुई बात नरक में ले जाने वाली होती है, उसे कभी मुँह से न निकले।

Sunday, April 18, 2010

हे वत्स !उठ........... ऊपर उठ।प्रगति के सोपान एक के बाद एक तय करता जा।दृढ़ निश्चय कर कि'अब अपना जीवनदिव्यता की तरफ लाऊँगा।

भगवान में इतना राग करो, उस शाश्वत चैतन्य में इतना राग करो कि नश्वर का राग स्मरण में भी न आये। शाश्वत के रस में इतना सराबोर हो जाओ, राम के रस में इतना तन्मय हो जाओ कि कामनाओं का दहकता हुआ, चिंगारियाँ फेंकता हुआ काम का दुःखद बड़वानल हमारे चित्त को न तपा सके, न सता सके।

आप के चित्त मे केवल संसार की चिंता नही , उस चैत्यन्य का चिंतन भी है..- आप के अन्दर केवल काम, क्रोध, मोह , अंहकार कि गंदगी नही प्रभुप्रिती का सुवास भी छुपा है..- आप के अन्दर केवल शोक , विषाद , दुर्बलता की पराधीनता ही नही.. आप के अन्दर आनंद और माधुर्य बिखेरने की स्वाधीनता भी है… bapuji

संगी साथी चल गए सारे, कोई ना दिज्यो साथ lकहे तुलसी साथ न छोडे तेरा एक रघुनाथ.. ll..संगी साथी सब छुट जाते , साथ नही आते…मरने के बाद भी साथ नही छोड़ते वो है आप के रघुनाथ …आप का आत्मा…

Saturday, April 17, 2010

यह आत्माकिसी काल मेंभी न तोजन्मता है औरन मरता ही हैतथा न यहउत्पन्न होकरफिर होने वालाही है क्योंकियह अजन्मा,नित्य, सनातनऔर पुरातन है शरीर केमारे जाने परभी यह नहींमारा जाता है
गुरु की सीख माने वह शिष्य है।अपने मन में जो आता है, वह तो अज्ञानी, पामर, कुत्ता, गधा भी युगों से करता आया है। आप तो गुरुमुख बनिये,शिष्य बनिये।
वेद को सागर की तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को मेघ की उपमा दी गई है। सागर के पानी से चाय नहीं बन सकती, खिचड़ी नहीं पक सकती, दवाईयों में वह काम नहीं आता, उसे पी नहीं सकते। वही सागर का खास पानी सूर्य की किरणों से वाष्पीभूत होकर ऊपर उठ जाता है, मेघ बनकर बरसता है तो वह पानी मधुर बन जाता है। फिर वह सब कामों मे...ं आता है। स्वाती नक्षत्र में सीप में पड़कर मोती बन जाता है।See More
ऐसे ही अपौरूषय तत्त्व में ठहरे हुए ब्रह्मवेत्ता जब शास्त्रों के वचन बोलते हैं तो उनकी अमृतवाणी हमारे जीवन में जीवन-शक्ति का विकास करके जीवनदाता के करीब ले जाती है। जीवनदाता से मुलाकात कराने की क्षमता दे देती है। इसीलिए कबीर जी ने कहाः सुख देवे दुःख को हरे करे पाप का अन्त ।कह कबीर वे कब मिलें परम स्नेही सन्त ।। :
चाहे हरा दो बाजी,चाहे जीता दो बाजि,तुम हो जिस्न्मे राजी हम भी उसी मै राजी,हें हृद्यास्वर हें प्रानेस्वार हें सर्वेश्वर हें परमेश्वर,विनती यह स्वीकार करो भूल दिखा कर,उसे मिटा कर अपना प्रेम प्रदान करो,
कितने भी फैशन बदलो, कितने भी मकान बदलो, कितने भी नियम बदलो लेकिन दुःखों का अंत होने वाला नहीं। दुःखों का अंत होता है बुद्धि को बदलने से। जो बुद्धि शरीर को मैं मानती है और संसार में सुख ढूँढती है, उसी बुद्धि को परमात्मा को मेरा मानने में और परमात्म-सुख लेने में लगाओ तो आनंद-ही-आनंद है,माधुर्य-ही-माधुर्य है...
ईर्ष्या, घृणा, तिरस्कार, भय, कुशंका आदि कुभावों से जीवन-शक्ति क्षीण होती है। दिव्य प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, हिम्मत और कृतज्ञता जैसे भावों से जीवन-शक्ति पुष्ट होती है। किसी प्रश्न के उत्तर में हाँ कहने के लिए जैसे सिर को आगे पीछे हिलाते हैं वैसे सिर को हिलाने से जीवन-शक्ति का विकास होता है। नकारात्मक उत्तर में सिर को दायाँ, बायाँ घुमाते हैं वैसे सिर को घुमाने से जीवन शक्ति कम होती है।

कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खाइयो मॉस,

दो नैना मत खाइयो जिन्हें पिया मिलन की आस

मेरे भैया ! स्वतंत्रता का अर्थ उच्छ्रंखलता नहीं है। शहीदों ने खून की होली खेलकर आप लोगों को इसलिए आजादी दिलायी है कि आप बिना किसी कष्ट के अपना, समाज का तथा देश का कल्याण कर सकें। स्वतंत्रता का सदुपयोग करो तभी तुम तथा तुम्हारा देश स्वतंत्र रह पायेगा, अन्यथा मनमुखता के कारण अपने ओज-तेज को नष्ट करने वालों को कोई भी अपना गुलाम बना सकता है। by lilashah ji maharaj...

यह कौन सा उकदा है जो हो नही सकता l

तेरा जी न चाहे तो , हो नही सकता ll

छोटा सा कीडा पत्थर मे घर करे l

और इन्सान क्या , दिले दिलबर मे घर न करे

मनुष्य के पास ज्ञान के लिए एक मात्र साधन यह बुद्धि है! यदि यह बुद्धि विषय वासनाओं से मलिन हो जाए तो वह मनुष्य को दुःख सागर में डुबो देती है! और यदि यह बुद्धि आत्मानुरागिणी हो जाए तो यह ऋतम्भरा नाम वाली बनकर मनुष्य को संसार के दुस्तर महासागर से पार लगाने में अति सहायक हो जाती है!
आवेश अवतार, प्रवेश अवतार, प्रेरक अवतार, अंतर्यामी अवतार, साक्षी अवतार..... ऐसे अनेक स्थानों पर अनेक बार भगवान के अवतार हुए हैं। एक अवतार अर्चना अवतार भी होता है। मूर्ति में भगवान की भावना करते हैं, पूजा की जाती है, वहाँ भगवान अपनी चेतना का अवतार प्रकट कर सकते हैं।
जैसा रोग , वैसा ही निदान ; और वैसी ही औषधि या अनुमान जो सदगुरू भव रोग के निवारण के लिए अपने शिष्य को देते हैं .गुरु जो स्वयं करतें हैं, उसका अनुसरण मत करो, लेकिन जो आज्ञा गुरु- मुख से निकले, आदरपूर्वक उसे व्यव्हार में लाओ और उसके अनुसार आचरण करो.मन को केवल उन्ही शब्दों पर केन्द्रित करो और नित्य उन्हीं का चिंतन करो.क्योंकि केवल वे ही तुम्हारे कल्याण का कारण होंगे. निरंतर इसका स्मरण रखना............ ॐ साईं राम

Thursday, April 15, 2010

इन्सान अनेकों बंधनों की बेडियों में बंधकर संसार में आता है ! जन्म से ही संघर्ष की शुरूआत हो जाती है ! लेकिन संघर्ष की घड़ी में स्वयं का साहस और प्रभु की प्रेरणा,अपना पुरूषार्थ और प्रभु की प्रारथना से ही सफ़लता का सवेरा प्राप्त होता है !
हजारो मनुष्यों में कोई विरला इश्वर के रास्ते चलता है .. हजारो इश्वर के रास्ते चलने वालो में से कोई विरले सिध्दि पाते है और वहा ही रुक जाते …. ऐसे हजारो में कोई विरला सत्य संकल्प से आगे बढ़ता है ..उस में से कोई विरला ब्रम्हज्ञानी बनाता है ..
मानव तो आते भी रोता है और जाते वक़्त भी रोता है जब रोने का वक़्त नहीं होता तब भी रोता है एक सदगुरु में ही वह ताकत है, जो जन्म-मरन के मूल अज्ञान को काटकर मनुष्य को रोने से बचा सकते हैं "वे ही गुरु हैं जो आसूदा-ऐ-मंजिल कर दें वर्ना रास्ता तो हर शख्श बता देता है" ऊँगली पकड़कर, कदम-से-कदम मिलाकर, अंधकारमय गलिओं से बाहर निकालकर लक्ष्य तक पहुँचानेवाले सदगुरु ही होते हैं

Wednesday, April 14, 2010

सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाओ और व्यवहार-काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ।
मैं निर्भय रहूँगा । मैं बेपरवाह रहूँगा जगत के सुख दु:ख में । मैं संसार की हर परिस्थिति में निश्चिन्त रहूँगा, क्योंकि मैं आत्मा हूँ । ऐ मौत ! तू शरीरों को बिगाड़ सकती है, मेरा कुछ नहीं कर सकती । तू क्या डराती है मुझे ?
दो औषधियों का मेल आयुर्वेद का योग है। दो अंकों का मेल गणित का योग है।चित्तवृत्ति का निरोध यह पातंजलि का योग है परंतु सब परिस्थितियों में सम रहना भगवान श्रीकृष्ण की गीता का'समत्व योग' है।

Tuesday, April 13, 2010

अपने अन्दर से कभी कम होने मत देना प्रेम के भाव भाव को,शांति के स्वभाव को,ईश के प्रभाव को,श्रद्धा के सद्भाव को! बहुत जरुरी है परिवार के लिए शांति , समाज के लिए क्रांति , जीवन के लिए उन्नति, सफलता के लिए सम्मति!

"भविष्य जानने की कोशिश मत करो। भविष्य परमात्मा के हाथ में है, वर्तमान आप के हाथ में है। भूतकाल बीत गया, उस की कोई कीमत नहीं । वर्तमान को अच्छा बना रहे है तो भविष्य की नींव डाल रहे हैं ।"

शान्ति के समान कोई तप नहीं हे !संतोष से बढ्कर कोई सुख नहीं हे !तृष्णा से बढकर कोई व्याधि नहीं हे ! दया के समान कोई धर्म नहीं हे !सत्य जीवन हे और असत्य मृत्यु हे !घृणा करनी हे तो अपने दोषों से करो !लोभ करना हे तो प्रभू के स्मरण का करो !बैर करना हे तो अपने दुराचारों से करो !दूर रहना हे तो बुरे संग से रहो ! मोह करना हो तो परमात्मा से करो !

जो अपने लक्ष्य के प्रति पागल हो गया हो उसे ही प्रकाश का दर्शन होता हे !जो थोडा इधर थोडा उधर हाथ मारते हें वे कोइ लक्ष्य पूर्ण नहीं कर पाते ! वे कुछ क्षणों के लिये बडा जोश दिलाते हें ,किन्तु यह शीघ्र ठंडा हो जाता हे !
जिस मनुष्य ने भगवत्प्रेमी संतो के चरणों की धूलकभी सिर पर नहीं चढ़ायी, वह जीता हुआ भी मुर्दा है।वह हृदय नहीं, लोहा है,जो भगवान के मंगलमय नामों का श्रवण-कीर्तन करने पर भी पिघलकर उन्हीं की ओर बह नहीं जाता।
तुम निर्भयतापूर्वक अनुभव करो कि मैं आत्मा हूँ । मैं अपनेको ममता से बचाऊँगा । बेकार के नाते और रिश्तों में बहते हुए अपने जीवन को बचाऊँगा । पराई आशा से अपने चित्त को बचाऊँगा । आशाओं का दास नहीं लेकिन आशाओं का राम होकर रहूँगा ।

Sunday, April 11, 2010

हे नाथ! मानमें, बड़ाईमें, आदरमें, रुपयोंमें, भोगोंमें, संग्रहमें, सुखमें, आराममें हमारा मन स्वत: जाता है-तो यह तो है हमारी दशा! और इसपर भी जो सत्संग मिलता है,आपकी चर्चा मिलती है,आपकी कथा मिलती है तो यह आपकी ही कृपा है महाराज!
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी को दया का सागर कहें, तब भी उनकी अपरिमित दया का तिरस्कार ही होता है।जीवों पर उनकी जो दया है, वह कल्पनातीत है।
जबतक तुम यह सोचते रहोगे कि अमुक परिस्थिति आनेपर भगवान् का भजन करुँगा,तबतक भजन बनेगा ही नहीं, परिस्थिति की कल्पना बदलती रहेगी;अतएव तुम जिस परिस्थिति में हो,उसी में भजन आरम्भ कर दो।भजन होने लगनेपर परिस्थिति आप ही अनुकूल हो जायगी।
जिस समय अपने दोष का दर्षन हो जाय,समझ लो,तुम जैसा विचारशील कोई नहीं।और जिस समय पर-दोष-दर्षन हो,उस समय समझ लो कि हमारे जैसा बेसमझ कोई नहीं।बे-समझ की सबसे बड़ी पहिचान है कि जो पराये दोष का पण्डित हो।और भैया,विचारशील की कसौटी है,कि जो अपने दोष का ज्ञाता हो।
जो भजन,ध्यान आदि साधन करके मुक्ति पाते हैं वे परिश्रम करके पेट भरनेवालों के समान हैं। और जो भगवान् के देने पर भी मुक्तिको ग्रहण न करके सबका कल्याण होने के लिये भगवान् के गुण,प्रेम,तत्व,रहस्य और प्रभावयुक्त भगवान् के सिद्दान्तका संसारमें प्रचार करते हैं,वे सबको खिलाकर भोजन करनेवालों के समान हैं।
बच्चे का माँसे जितना प्रेम होता है,उससे भी बहुत अधिक प्रेम माँका बच्चेसे होता है।परन्तु बच्चा माँके प्रेमको पहचानता नहीं।अगर बच्चा माँके प्रेम को पहचान ले तो वह माँ की गोदी में रो ही नहीं सकता! ऐसे ही भगवान् का जीव से कम प्रेम नहीं है।काकभुशुण्डिजी भगवान् के साथ खेलते-खेलते जब उनके पास आते हैं,तब भगवान् हँसने लगते हैं ...और जब उनसे दूर चले जाते हैं,तब भगवान् रोने लगते हैं।(जिन खोजा तिन पाइया-पेज-५०)
हे नाथ! यदि तुम स्वयं ही न आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊँ? कौन लाकर देगा मुझे तुम्हारा प्रतीक? मैं बालिका हूँ। मेरी बात कौन सुनेगा? मेरी शक्ति कितनी? तुम न आओ तो मैं क्या कर सकूँगी?मुझे बताओ मैं क्या करुँ,क्या करुँ? क्यों तुम मुझे इतने अच्छे लगते हो?क्यों? क्यों?........क्यों तुम इतने अच्छे लगते हो?
जो भजन,ध्यान आदि साधन करके मुक्ति पाते हैं वे परिश्रम करके पेट भरनेवालों के समान हैं। और जो भगवान् के देने पर भी मुक्तिको ग्रहण न करके सबका कल्याण होने के लिये भगवान् के गुण,प्रेम,तत्व,रहस्य और प्रभावयुक्त भगवान् के सिद्दान्तका संसारमें प्रचार करते हैं,वे सबको खिलाकर भोजन करनेवालों के समान हैं।
"भविष्य जानने की कोशिश मत करो। भविष्य परमात्मा के हाथ में है, वर्तमान आप के हाथ में है। भूतकाल बीत गया, उस की कोई कीमत नहीं । वर्तमान को अच्छा बना रहे है तो भविष्य की नींव डाल रहे हैं ।"
ऐ पागल इन्सान ! ऐ माया के खिलौने ! सदियों से माया तुझे नचाती आयी है । अगर तू ईश्वर के लिए न नाचा, परमात्मा के लिए न नाचा तो माया तेरे को नचाती रहेगी । तू प्रभुप्राप्ति के लिए न नाचा तो माया तुझे न जाने कैसी कैसी योनियों में नचायेगी !

Wednesday, April 7, 2010

जैसे कूड़े-कचरे के स्थान पर बैठोगे तो लोग और कूड़ा-कचरा आपके ऊपर डालेंगे । फूलों के ढेर के पास बैठोगे तो सुगन्ध पाओगे । ऐसे ही देहाध्यास, अहंकार के कूड़े कचरे पर बैठोगे तो मान-अपमान, निन्दा स्तुति, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व आप पर प्रभाव डालते रहेंगे और भगवच्चिन्तन, भगवत्स्मरण, ब्रह्मभाव के विचारों में रहोगे तो शांति, अनुपम लाभ और दिव्य आनन्द पाओगे ।
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, जिस समय समाज में खिंचाव, तनाव व विषयों के भोग का आकर्षण जीव को अपनी महिमा से गिराते हैं, उस समय प्रेमाभक्ति का दान करने वाले तथा जीवन में कदम कदम पर आनंद बिखेरने वाले महापुरूष का अवतार होता है।
बुराई को बुराई से नहीं बल्कि अच्छाई द्वारा, हिंसा को अंहिसा द्वारा और घृणा को प्रेम से खत्म किया जा सकता है।’अपने शत्रुओं से प्यार करो, ईश्वर में विश्वास करो, भविष्य की चिंता मत करो और दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसे कि तुम उनसे अपेक्षा रखते हो।

गुरू

जिस प्रकार पिता या पितामह की सेवा करने से पुत्र या पौत्र खुश होता है इसी प्रकार गुरू की सेवा करने से मंत्र प्रसन्न होता है। गुरू, मंत्र एवं इष्टदेव में कोई भेद नहीं मानना। गुरू ही ईश्वर हैं। उनको केवल मानव ही नहीं मानना। जिस स्थान में गुरू निवास कर रहे हैं वह स्थान कैलास हैं। जिस घर में वे रहते हैं वह काशी या वाराणसी है। उनके पावन चरणों का पानी गंगाजी स्वयं हैं। उनके पावन मुख से उच्चारित मंत्र रक्षणकर्त्ता ब्रह्मा स्वयं ही हैं।

गुरू की मूर्ति ध्यान का मूल है। गुरू के चरणकमल पूजा का मूल है। गुरू का वचन मोक्ष का मूल है।

गुरू तीर्थस्थान हैं। गुरू अग्नि हैं। गुरू सूर्य हैं। गुरू समस्त जगत हैं। समस्त विश्व के तीर्थधाम गुरू के चरणकमलों में बस रहे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, पार्वती, इन्द्र आदि सब देव और सब पवित्र नदियाँ शाश्वत काल से गुरू की देह में स्थित हैं। केवल शिव ही गुरू हैं

गुरू और इष्टदेव में कोई भेद नहीं है। जो साधना एवं योग के विभिन्न प्रकार सिखाते है वे शिक्षागुरू हैं। सबमें सर्वोच्च गुरू वे हैं जिनसे इष्टदेव का मंत्र श्रवण किया जाता है और सीखा जाता है। उनके द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

अगर गुरू प्रसन्न हों तो भगवान प्रसन्न होते हैं। गुरू नाराज हों तो भगवान नाराज होते हैं। गुरू इष्टदेवता के पितामह हैं।

जो मन, वचन, कर्म से पवित्र हैं, इन्द्रियों पर जिनका संयम है, जिनको शास्त्रों का ज्ञान है, जो सत्यव्रती एवं प्रशांत हैं, जिनको ईश्वर-साक्षात्कार हुआ है वे गुरू हैं।
यदि मेरा मन व्याकुल है, हमेशा क्रोध, बैर, दुर्भावना और द्वेष से भरा रहता है, तो मैं विश्व को शांति कैसे प्रदान कर सकता हूँ? ऐसा कर ही नहीं सकता क्योंकि स्वयं मुझमें शांति नहीं है। इसलिए संतों और प्रबुद्धों ने कहा- 'शांति अपने भीतर खोजो।' स्वयं अपने भीतर निरीक्षण करके देखना है कि क्या सचमुच मुझमें शांति है।
Priti ki meri ab tum hi badana , tum hi prabhu ho mera ashiyana , kitno ko bhav se tumne hai tara , tumko na bhule ho Satgurudeva , Tera hi sahara hai he Satgurudeva , tumne sikhaya jis rah pe chalna , Bhule na kabhi tujko he Gurudeva bas tera hi sahara hai O satguru Deva

मेरे गुरूजी

मेरे गुरूजी तुमसे आरम्भ होती मेरी सुबह
लेकिन मुझे ऐसा क्यों लगता कि
तुम बिन मेरा जीवन अधूरा हैं
तुम्हारे अतिरिक्त नही कर पाता
मैं और कुछ भी चिंतन
यह स्मरण ही
अब मेरा जीवन हैं

परमात्मा

परमदेव परमात्मा कहीं आकाश में, किसी जंगल, गुफा या मंदिर-मस्जिद-चर्च में नहीं बैठा है। वह चैतन्यदेव आपके हृदय में ही स्थित है। वह कहीं को नहीं गया है कि उसे खोजने जाना पड़े। केवल उसको जान लेना है। परमात्मा को जानने के लिए किसी भी अनुकूलता की आस मत करो। संसारी तुच्छ विषयों की माँग मत करो। विषयों की माँग कोई भी हो, तुम्हें दीन हीन बना देगी। विषयों की दीनतावालों को भगवान नहीं मिलते। इसलिए भगवान की पूजा करनी हो तो भगवान बन कर करो। देवो भूत्वा यजेद् देवम्। जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनंदस्वरूप है, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनंद, शांति तथा पूर्ण आत्मबल के साथ उनकी उपासना करो कि 'मैं जैसा-तैसा भी हूँ भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं और वे सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं तथा दयालु भी हैं तो मुझे भय किस बात का !' ऐसा करके निश्चिंत नारायण में विश्रांति पाते जाओ।

बल ही जीवन है, निर्बलता ही मौत है। शरीर का स्वास्थ्यबल यह है कि बीमारी जल्दी न लगे। मन का स्वास्थ्य बल यह है कि विकार हमें जल्दी न गिरायें। बुद्धि का स्वास्थ्य बल है कि इस जगत के माया जाल को, सपने को हम सच्चा मानकर आत्मा का अनादर न करें। 'आत्मा सच्चा है, 'मैं' जहाँ से स्फुरित होता है वह चैतन्य सत्य है। भय, चिंता, दुःख, शोक ये सब मिथ्या हैं, जाने वाले हैं लेकिन सत्-चित्-आनंदस्वरूप आत्मा 'मैं' सत्य हूँ सदा रहने वाला हूँ' – इस तरह अपने 'मैं' स्वभाव की उपासना करो। श्वासोच्छवास की गिनती करो और यह पक्का करो कि 'मैं चैतन्य आत्मा हूँ।' इससे आपका आत्मबल बढ़ेगा, एक एक करके सारी मुसीबतें दूर होती जायेंगी।
'नाम के समान न ज्ञान है, न व्रत है, न ध्यान है, न फल है, न दान है, न शम है, न पुण्य है और न कोई आश्रय है। नाम ही परम मुक्ति है, नाम ही परम गति है, नाम ही परम शांति है, नाम ही परम निष्ठा है, नाम ही परम भक्ति है, नाम ही परम बुद्धि है, नाम ही परम प्रीति है, नाम ही परम स्मृति है।'
संसार में हर वस्तु का मूल्य चुकाना होता हे ! बिना ताप किये कष्ट सहे आप अधिकार, पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, सम्पति, शक्ति प्राप्त नहीं कर सकते, अत: आपको तपस्वी होना चाहिए आलसी, आराम पसंद नहीं! जीवन के समस्त सुख आपके कठोर पर्रिश्रम के नीचे दबे पड़े हैं, इसे हमेशा याद रखिए!

Thursday, April 1, 2010

कहाँ है वह तलवार जो मुझे मार सके ? कहाँ है वह शस्त्र जो मुझे घायल कर सके ? कहाँ है वह विपत्ति जो मेरी प्रसन्नता को बिगाड़ सके ? कहाँ है वह दुख जो मेरे सुख में विघ्न ड़ाल सके ? मेरे सब भय भाग गये सब संशय कट गये मेरा विजय-प्राप्ति का दिन आ पहुँचा है कोई संसारिक तरंग मेरे निश्छल चित्त को आंदोलित नहीं कर सकती
zindgi se jo lamha mile use chura lo, zindagi pyar se apni saja lo, zindgi yu hi gujar jayegi aaram se bas kabhi khud hanso kabhi rote hue ko hasa do

dil ek mandir

bas dil ko to mandir banana hai aur usme murat sajani hai apne pratam ki voh pritam jo kabhi juda nahi hota , kabhi nahi bichadta , kabhi hamse alag nahi hota , bhichadta hai yah sansar , bhichadti hai yah sansari vastue jo kabhi hamari nahi thi par galti se ham apni samaj bethate hai , jinke liye mare mare firte hai , rat din rote rahate hai voh sab to bichad jayega par jo kabhi nahi bhichdega , kabhi hamese juda nahi hoga use kab ham prit karenge , kab dil me mandir me use sajayenge ,kab tak bahar gumte rahenge , kyo nahi ham dil ke mandir me dubate ,kyo hamari mati mari gayi hai , kab tak sansare ke bandanome dubate rahenge , kab tak sabko kush karte phirte rahenege , kayo nahi ham apne atma deva ko kush karte , kyo nahi ham unke liye apni prit ki dori ko kaste , kab tak ............................................................................................... samay ka panchi udta ja raha hai , har din chutta ja raha hai , bas kahi der na ho jaye
जीवन में आप जो कुछ करते हो उसका प्रभाव आपके अंतःकरण पर पड़ता है। कोई भी कर्म करते समय उसके प्रभाव को, अपने जीवन पर होने वाले उसके परिणाम को सूक्ष्मता से निहारना चाहिए । ऐसी सावधानी से हम अपने मन की कुचाल को नियंत्रित कर सकेंगे, इन्द्रियों के स्वछन्द आवेगों को निरुद्ध कर सकेंगे, बुद्धि को सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर सकेंगे
Karni hai khuda se ek guzarish ke Teri Dosti ke siva koi bandgi na mile.. Har janam mein mile dost tere jaisa Ya phir kabhi zindgi na mile
Takdir ne khel se nirash nahi hote zindgi me kabhi udas nahi hote hatho ki lakiro pe yakin mat kr takdir to unki b hoti h jinke hath nahi hote

Realisation of God

A Blessing
The man whispered,
"God, speak to me"
and a meadowlark sang.
But, the man did not hear.

So the man yelled,
"God, speak to me"
and the thunder rolled across the sky.
But, the man did not listen

The man looked around and said,
"God let me see you."
And a star shined brightly.
But the man did not see.

And, the man shouted,
"God show me a miracle."
And, a life was born. But,
the man did not notice

So, the man cried out in despair,
"Touch me God, and let me know you are here."
Whereupon, God reached down and touched the man.
But, the man brushed the butterfly away ...
and walked on.

I found this to be a great reminder that God is always around us in the little and simple things that we take for granted. Don't miss out on a blessing because it isn't packaged the way that you expect.