Sunday, March 28, 2010

जब-जब हम कर्म करें तो कर्म को अकर्म में बदल दें अर्थात् कर्म का फल ईश्वर को अर्पित कर दें अथवा कर्म में से कर्तापन हटा दें तो कर्म करते हुए भी हो गया अकर्म। कर्म तो किये लेकिन उनका बंधन नहीं रहा।

संसारी आदमी कर्म को बंधनकारक बना देता है, साधक कर्म को अकर्म बनाने का यत्न करता है लेकिन सिद्ध पुरुष का प्रत्येक कर्म स्वाभाविक रूप से अकर्म ही होता है। रामजी युद्ध जैसा घोर कर्म करते हैं लेकिन अपनी ओर से युद्ध नहीं करते, रावण आमंत्रित करता है तब करते हैं। अतः उनका युद्ध जैसा घोर कर्म भी अकर्म ही है। आप भी कर्म करें तो अकर्ता होकर करें, न कि कर्ता होकर। कर्ता भाव से किया गया कर्म बंधन में डाल देता है एवं उसका फल भोगना ही पड़ता है।

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