Wednesday, March 31, 2010

मन

जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक दुःखों, से भरा पड़ा है । गर्भवास का दुःख, जन्मते समय का दुःख, बचपन का दुःख, बीमारी का दुःख, बुढ़ापे का दुःख तथा मृत्यु का दुःख आदि दुःखो की परम्परा चलती रहती है । गुरु नानक कहते हैं :

“नानक ! दुखिया सब संसार ।”

मन को प्रतिदिन इन सब दुःखो का स्मरण कराइए । मन को अस्पतालों के रोगीजन दिखाइए, शवयात्रा दिखाइए, स्मशान-भूमि में घू-घू जलती हुई चिताएँ दिखाइए । उसे कहें : “रे मेरे मन ! अब तो मान ले मेरे लाल ! एक दिन मिट्टी में मिल जाना है अथवा अग्नि में खाक हो जाना है । विषय-भोगों के पीछे दौड़ता है पागल ! ये भोग तो दूसरी योनियों में भी मिलते हैं । मनुष्य-जन्म इन क्षुद्र वस्तुओं के लिए नहीं है । यह तो अमूल्य अवसर है । मनुष्य-जन्म में ही पुरुषार्थ साध सकते हैं । यदि इसे बर्बाद कर देगा तो बारंबार ऎसी देह नहीं मिलेगी । इसलिए ईश्वर-भजन कर, ध्यान कर, सत्संग सुन और संतों की शरण में जा । तेरी जन्मों की भूख मिट जायेगी । क्षुद्र विषय-सुखों के पीछे भागने की आदत छूट जायेगी । तू आनंद के महासागर में ओतप्रोत होकर आनंदस्वरुप हो जायेगा ।

अरे मन ! तू ज्योतिस्वरुप है । अपना मूल पहचान । चौरासी लाख के चक्कर से छूटने का यह अवसर तुझे मिला है और तू मुठ्ठीभर चनों के लिए इसे नीलाम कर देता है, पागल ।

इस प्रकार मन को समझाने से मन स्वतः ही समर्पण कर देगा । तत्पश्चात् एक आज्ञाकरी व बुद्धिमान बच्चे के समान आपके बताये हुए सन्मार्ग पर खुशी-खुशी चलेगा ।

जिसने अपना मन जीत लिया, उसने समस्त जगत को जीत लिया । वह राजाओं का राजा है, सम्राट है, सम्राटों का भी सम्राट है ।

No comments:

Post a Comment