Tuesday, April 17, 2012

जितना हो सके, जीवित सदगुरु के सान्निध्य का लाभ लो। वे तुम्हारे अहंकार को काट-छाँटकर तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को प्रत्यक्ष करेंगे। उनकी वर्त्तमान हयाती के समय ही उनसे पूरा-पूरा लाभ लेने का प्रयास करो। उनका शरीर छूटने के बाद तो..... ठीक है, मंदिर बनते हैं और दुकानदारियाँ चलती हैं। तुम्हारी गढ़ाई फिर नहीं हो पायेगी। अभी तो वे तुम्हारी – ‘स्वयं को शरीर मानना और दूसरों को भी शरीर मानना’- ऐसी परिच्छिन्न मान्यताओं को छुड़ाते हैं। बाद में कौन छुड़ायेगा?..... बाद में नाम तो होगा साधना का कि मैं साधना करता हूँ, परन्तु मन खेल करेगा, तुम्हें उलझा देगा, जैसे सदियों से उलझाता आया है।

मिट्टी को कुम्हार शत्रु लगता है। पत्थर को शिल्पी शत्रु लगता है क्योंकि वे मिट्टी और पत्थर को चोट पहुँचाते हैं। ऐसे ही गुरु भी चाहे तुम्हें शत्रु जैसे लगें, क्योंकि वे तुम्हारे देहाध्यास पर चोट करते हैं, परन्तु शत्रु होते नहीं। शत्रु जैसे लगें तो भी तुम भूलकर भी उनका दामन मत छोड़ना। तुम धैर्यपूर्वक लगे रहना अपनी साधना में। वे तुम्हें कंचन की तरह तपा-तपाकर अपने स्वरूप में जगा देंगे। तुम्हारा देहाध्यासरूपी मैल धोकर स्वच्छ ब्रह्मपद में तुम्हें स्थिर कर देंगे। वे तुमसे कुछ भी लेते हुए दिखें परन्तु कुछ भी नहीं लेंगे, क्योंकि वे तो सब छोड़कर सदगुरु बने हैं। वे लेंगे तो तुम्हारी परिच्छिन्न मान्यताएँ लेंगे, जो तुम्हें दीन बनाये हुए हैं।

सदगुरु मिटाते हैं। तू आनाकानी मत कर, अन्यथा तेरा परमार्थ का मार्ग लम्बा हो जायेगा। तू सहयोग कर। तू उनके चरणों में मिट जा और मालिक बन, सिर दे और सिरताज बन; अपना 'मैं' पना मिटा और मुर्शिद बन। तू अपना तुच्छ 'मैं' उनको दे दे और उनके सर्वस्व का मालिक बन जा। अपने नश्वर को ठोकर मार और उनसे शाश्वत का स्वर सुन। अपने तुच्छ जीवत्व को त्याग दे और शिवत्व में विश्राम कर।

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